नारी- पुरुष समान हैं और भिन्न भी
नारी एक ऐसा रहस्य है जिसे सभी ने अपने- अपने दृष्टिकोण से जानने का प्रयास किया और उसे परिभाषित किया। यदि हम आज की बात करें तो हर कोई नारी उत्थान और उसकी समस्या पर चर्चा कर रहा है। कभी नारी की पारिवारिक स्थिति को बदलने और उसे परिवार, समाज मे सम्मान, उचित स्थान दिलाने तो कभी पुरुषों से तुलना करते हुए समानता के अधिकार की बात की जा रही है।
नारी प्रारंभ से ही पुरुष के समान है। उसकी सहभागिता प्रत्येक स्थान पर उतनी ही है जितनी पुरुष की। यहां तक कि वेद-पुराणों और शास्त्रों में उसका स्थान सर्वोपरि बताया गया है। नारी को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ स्थान दिया गया है – “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”
जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी श्रेष्ठ एवं महान है। वह संपूर्ण सृष्टि में एकमात्र ऐसी रचना है जो प्रेम, करुणा, दया, धैर्य, सहनशीलता, क्षमा आदि सद्गुणों से पूर्ण है। जिसे वह अर्जित नहीं करती अपितु यह उसके मूल प्रवृति में समाहित होते हैं। वह इन गुणों के साथ जहां भी वास करती है वह स्थान पवित्र, सुखमय, आनंदपूर्ण, वैभवशाली, समृद्धि, शांतिपूर्ण में परिवर्तित हो जाता है। आप भी इस बात से सहमत होंगे कि जिस घर में नारी को सम्मान नहीं या वह कष्टमय जीवन व्यतीत कर रही है वह घर दुख, निराशा, दरिद्रता रुपी अंधकार से भरा होगा। जहां नारी को सम्मान नहीं वहां पुरुष भी सम्मान नहीं पा सकता क्योंकि पुरुष को जन्म देने वाली नारी ही है। जहां नारी का अपमान किया जाता है वहां पुरुष को भी कभी उच्च स्थान नहीं मिल सकता क्योंकि पुरुष का लालन-पालन भी नारी के द्वारा ही होता है।
नारी अपने इतने रूपों को धारण करती है कि संसार में उसके समान इस कला का अन्य कोई अधिकारी नहीं। प्रत्येक रिश्ते के साथ वह अपना एक नया रूप धारण करती है जिसमें अलग एहसास अलग भाव अलग धारणा होती है और वह उसे बड़े सुंदर रुप से निभाती भी है।
नारी कभी कन्या कभी पत्नी तो कभी मां के रूप में जानी जाती है। क्या हमने कभी ध्यान दिया कि यह तीनों रूप जीवन में एक बदलाव लाते हैं। जब कन्या जन्म लेती है तो घर में खुशहाली का भी जन्म होता है मां के आत्मविश्वास का जन्म होता है और पिता के दायित्व का जन्म होता है। उसकी एक मुस्कान पिता की थकान को पल भर में मिटा देती है। कन्या परिवार में एक ऐसे दीप के रूप में प्रज्ज्वलित होती है जिसका प्रकाश न केवल वर्तमान अपितु भविष्य के अंधकार को भी दूर करता है। परंतु परिवारीजन इस बात से अज्ञात होते हें। क्योंकि कुछ लोगों की मानसिकता मात्र बालक जन्म में गौरवपूर्ण अनुभूति करता है। आखिर ऐसा क्यों?
ऐसा प्रारंभ से कभी नहीं था कि नारी के प्रति सदैव हीन- भावना थी। हम पुराणों और उपनिषदों में पढ़ते हैं कि जहां नारी को देवत्व रूप में पूजा जाता है वहां देवता वास करते हैं –
“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता”
नारी के बिना न संस्कार है न समृद्धि न सदाचार न शांति न ही शिक्षा। यदि यह सब नहीं होगा तो संसार में क्या होगा और कैसा होगा?
नारी पत्नी रूप में जब अपने पति के घर में प्रवेश करती है तो अनेक आशाएं अपार सौहार्द अनंत खुशियां असीमित प्रेम और अपने दायित्व को संभालते हुए नए संसार में कदम रखती है। उसके कदम घर में एक ऐसे परिवर्तन को स्थान देते हैं जहां दुख, निराशा, दरिद्रता को भागना पड़ता है। परंतु यहां भी कुछ लोग इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उन्होंने इस बात को सत्य मान लिया है कि पुरुष नारी से ज्यादा शक्तिशाली है ज्यादा सक्षम है ज्यादा समझदार है ज्यादा सम्मान का अधिकारी है। आखिर यह तुलना क्यों ?
नारी हो या पुरुष जन्म देने वाली माँ एक होती है। दोनों का लालन-पालन भी माँ के द्वारा होता है। फिर यह भेद कि पुरुष शक्तिशाली है क्यों? इसका मतलब नारी कमजोर है। ऐसा तो नहीं स्वयं माँ भी बेटी की अपेक्षा बेटे से ज्यादा प्रभावित है। इसीलिए बेटी अर्थात स्वयं को कमजोर मानती है या बनाती है।
सदियाँ बीत गई परंतु व्यक्ति की मानसिकता नहीं बदली। आज भी व्यक्ति उसी तालाब की मछली बनकर रहना चाहता है जिसका पानी गंदा हो गया है दुर्गंध भी आना शुरु हो गई है परंतु उसने इसमे ही जीने की आदत डाल ली है।
अरे! तालाब से निकलिए। समय के बदलाव को अपनाते हुए नदी की जलधारा के साथ बहिए। एक एहसास कीजिए उस नयेपन का जिसमें सुगंध है प्रेम है साथ है विकास है और एक नई दुनिया की ओर बदलाव है।
आज हम कहते हैं कि नारी को अधिकार मिल रहा है, सम्मान मिल रहा है। मैं पूछती हूं, ‘कहां और कितना?” हमने सदैव बचपन से सुना है हमारा देश पुरुष प्रधान देश है, लेडीस फर्स्ट, औरतों में पुरुषों की अपेक्षा कम बुद्धि होती है, पुरुष ज्यादा शक्तिशाली है, ज्यादा निपुण है… इस प्रकार की कई बातें। इन बातों का एक ही आशय हुआ कि नारी कमजोर है दीन है हीन है। मैं मानती हूं ऐसा सुनते-सुनते नारी ने भी स्वीकार कर लिया है कि वह पुरुषों की अपेक्षा कमजोर है वरना रेल, मेट्रो, बस आदि में अलग कोच या अलग स्थान को स्वीकार नहीं करती । सुरक्षा और अलग स्थान कमजोर लोगों की आवश्यकता है। क्यों पुरुषों के लिए इन सबकी आवश्यकता नहीं? क्योंकि हमने स्वीकार कर लिया हैं कि पुरुष शक्तिशाली है और यही सोच समाज में नारी-पुरुष को विलग कर रही है। जब तक इस सोच को बदला नहीं जाएगा नारी– पुरुष में समानता का भाव असंभव है।
नारी पुरुष समान हैं और भिन्न भी । दोनों के गुणों में भिन्नता है परंतु समान महत्व है। पुरुष के पास शारीरिक शक्ति नारी की अपेक्षा ज़्यादा है तो नारी के पास विशाल हृदय, अत्यधिक सहनशीलता। पुरुष ‘तर्क’ करने की क्षमता अधिक रखता है और नारी के पास ‘भावना’। वह ज्यादा प्रेम करती है ज्यादा संवेदनशील है ज्यादा अनुभूतिपूर्ण है। इससे कोई ऊंचा- नीचा नहीं होता। जहां पुरुष बीजारोपण का कार्य करता है वहीं नारी उसे सींचती है उसका ख्याल रखती है उसे प्रेम और विश्वास के साथ बड़ा करती है। दोनों का सहयोग समान है। किसी एक के बिना दूसरा असफल है। जहां पुरुष जीविका का साधन बटोरता है वहीं नारी जीवन देती है। जहां पुरुष अपनी दृढ़ता ,आत्मविश्वास और लगन से परिवार के उत्थान और स्वयं की प्रगति के लिए सोचता है वही नारी प्रेम, वात्सल्य, धैर्य की भावना रख शांति, सौहार्द बनाए उसे साकार करने में उसका साथ देती है। एक दूसरे के बिना ना कोई पूर्ण है ना सफल। कुछ लोग भले ही इस बात से सहमत ना हो। वे भौतिक जीवन में सफलता पा सकते हैं परंतु वास्तविक जीवन में नहीं।
आज हम मानने लगे हैं कि नारी को समान अधिकार दिया जा रहा है। परंतु उसके लिए न जाने कितने प्रयास किए जा रहे हैं कितने दबाव डाले जा रहा हें। प्रयास या दबाव से कभी बदलाव नहीं आ सकता। हां, इससे कुछ नारियों के जीवन में सहूलियत मिल सकती है परंतु नारी- पुरुष का भेद नहीं मिटाया जा सकता। पूर्ण रूप से इस समान अधिकार को पाने के लिए पुरानी रीतियों, परंपराओं का खंडन करना पड़ेगा। एक ऐसी सोच को विकसित करना होगा जहां स्वतः इस असमानता का भाव मिट जाए और इस भाव को मिटाने के लिए न मात्र नारी को अपितु पुरुष को भी आगे आना होगा।
बालक अपने घर में जब अपने माता- पिता के व्यवहार को देखता है और महसूस करता है कि पिता का वर्चस्व माँ से अधिक है, यही बात उसके मानस पटल पर इस प्रकार छा जाती है कि बड़े होकर वह भी नारी से स्वयं को बड़ा, सक्षम और शक्तिशाली समझने लगता है। इसी प्रकार कन्याओं को भी बचपन से ही यही सिखाया जाता है कि बाहर मत जाओ, लड़कों के साथ मत खेलो, लड़को से बात मत करो….इत्यादि। बचपन से ही उन्हें दूर और अलग रखने के प्रयास में एक ऐसे आकर्षण का जन्म होता है जो कभी अन्याय का रूप धारण करता है तो कभी कुकृत्य का।
हम सहशिक्षा की बात करते हैं परंतु कक्षा में लड़के और लड़कियों को अलग अलग बैठाकर दोनों के बीच अध्यापक पहरेदारी देते हैं । लड़कियां चांद पर पहुंच गई हों या लड़ाकू विमान पायलट बन गई हों परंतु आज भी हालात ऐसे हैं कि लड़कियों का अकेले घर से बाहर जाने का डर वाली बात छोड़िए घर के अंदर भी अब सुरक्षित नहीं है।
बच्चा पतंग के समान होता है और उस पतंग की डोर मां के हाथ में होती है। वह जिधर चाहे उधर मोड़ सकती है। बचपन से ही लड़का- लड़की दोनों की शिक्षा, संस्कार, आचार- विचार में भेद नहीं होना चाहिए। बचपन से ही लड़की को हक मानना चाहिए कि वह उसके साथ खेलेगी, दौड़ेगी, पड़ेगी- लिखेगी और उसके साथ प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार के साथ खड़ी होगी। ऐसा होने पर लड़के के मन में भी इस प्रवृत्ति का जन्म नहीं होगा कि वह उससे कम या कमजोर है। उसे वह अपने ही समान, सक्षम और शक्तिशाली समझेगा। ये विचार जिस दिन साकार रुप लेंगे उस दिन इस सत्य का प्रस्थान बिंदु होगा कि “नारी- पुरुष समान हैं।“
नारी- पुरुष, समानता का रूप धारण करेंगे तो एक नए बदलाव के साथ नए समाज नई दुनिया का निर्माण होगा, जहां से वास्तविक विकास परिलक्षित होगा। जहां हर कोई स्वतंत्र होगा स्वतः सुरक्षित होगा और भय को कोई स्थान नहीं मिलेगा। एक दूसरे के लिए सम्मान होगा। जहां एक दूसरे के लिए प्रेम और सम्मान हो वह देश संसार के शीर्ष पर मोर पंख की भांति सुशोभित होगा और गौरवशाली बनेगा।