प्रेमचंद – साहित्य का सूरज यथार्थ का साथी
न अपने लिए लिखा न औरों के लिए,
लिखा उस दिल के लिए जिसने दर्द को छुआ ।
किया संघर्ष उस मझधार में
जहां अक्सर डूब जाती है नैया,
विश्वास लगन ने मंजिल दी
हौंसले थे खेवैया ।
दर्द को जाना था इसलिए पहचाना था,
स्वयं को कलम का मजदूर बताकर
बदला साहित्य का जमाना था ।
कुरीतियों का तिरस्कार किया
स्वयं को आगे कर,
बाल विधवा से पुनर्विवाह किया ।
सम्राट यूं ही नहीं बन गए,
कितनी तपस्याएं की मुश्किलें उठाई, उलझनें सुलझाईं ।
देखो निर्मला को-
जहां बेमेल विवाह दिखाया,
वही कैसे उसने अपना उत्तरदायित्व निभाया ।
होरी को देखो-
किसान का सच दिया,
वही अपने मालिकों का अपमान न किया ।
देखो कफन को-
जिसने कहानी की दुनिया में हाहाकार मचाया,
ऐसा होश पहले किसको आया ।
जहां बाप- बेटे निट्ठल्ले दिखाए,
वही उनकी सोच ने आंखों से चश्मे हटाए ।
अरे! बूढ़ी काकी को देखो-
लगेगा जीवन का आनंद सिर्फ खाने में नहीं,
उसकी खुशबू में भी है ।
कोई किसी को कितना भी सता ले,
खुश रहने वाला रास्ता ढूंढ ही लेता है ।
कल्पना नहीं समाज का सत्य उकेरती,
जीवन में गहनता, समरसता, वह दूरदृष्टि
क्या एक साधारण पुरुष की ?
ऐसी हिम्मत की हुकूमत भी घबरा गई,
‘सोजे वतन’ खाक की
दी चेतावनी- ना बंद किया लिखना तो
यह कलम तेरा हाथ भी कटवाएगी ।
सिपाही कभी डरता नहीं पीछे कभी हटता नहीं
फिर वह तो ठहरा कलम का सिपाही,
यह छोटी धमकियां क्या रोकती
उस मंजिल तक पहुंचने में,
जो नियति ने पूर्व निर्धारित कर रखी थी ।
कलम की रफ्तार ने साथ न छोड़ा,
दिल के सुर ने साज़ न तोड़ा ।
जो हाथ उठ चुके थे पथ प्रदर्शन के लिए
यथार्थ के दर्शन के लिए,
साहित्य जगत को बात दे गए, राह दे गए,
दूरदृष्टि का साथ दे गए ।
आह! क्या थे वे,
ऐसी दृष्टि ऐसी सोच
जिसने जगत बदल डाला
साहित्य का अस्तित्व जगा डाला ।
सिखा गए एक बात-
क्या होता सोचकर मात्र स्वयं को,
नज़र पसारकर देखो
इर्द-गिर्द तरस रहे होंगे
तुम्हारी एक दृष्टि को ।