कविता

प्रथम गुरु

माँ …..
शब्द में ही पवित्रता
मेरे जन्म के लिए
कितनी प्रार्थनाएं की
फिर नौ महीने मेरी
सलामती की साधना की
आंखें मेरी खुली तो जैसे
स्वर्ग उसने पाया
देख मुझे उसकी ह्रदय में मामृत आया
काजल का टीका लगाकर
कुदृष्टि से मुझे बचाया
रातों में जागकर मुझे सुलाती,
लोरी सुनाती….
देख मुझे बस खूब हर्षाती
रोना ना वह मेरा सुन पाती
छोड़ के काम भागती आती
अम्मा बाबा चाचा चाची
नाना-नानी मुझे सिखाती
रिश्तो की पहचान कराती
माँ प्रथम गुरु बन जाती
धरती पर सच्चा प्रेम देखना है
तो माँ का रूप देखो
स्वार्थ का पूर्णता त्याग मिलेगा
ममता स्नेह दुलार मिलेगा
कोई माता दरिद्र कुरुप
जरा- जीण नहीं
संपत्तिशालिनी जीवन जननी वही
कह गए मनु भी-
गुरु आदरणीय,
पिता सहस्त्रगुना आदरणीय और माता
पिता के सहस्त्रगुना से भी
अधिक आदरणीय
इसीलिए परिस्तिथि कोई भी हो
माँ कभी अप्रसन्न ना हो
सम्मान इस शब्द को
जिसमें जुड़े श्रेष्ठ हो जाए
भाषा से मातृभाषा बन जाए
भूमि से मातृभूमि कहलाए
प्रेम की पराकाष्ठा है
जीवन की आस्था है
पृथ्वी पर भगवान की स्वरुपभूता
वेद भी कह गए
मातृदेवोभव‘।

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