कविता

पापा की परछाई

पापा की प्यारी होती है
पर बेटी तो पराई होती है।
रंगों से पहचान कराया
आँखों में दुनिया का
रंग दिखाया
जब गिर रही थी
हाथ देकर अपना
मुझे फिर से उठाया
उम्मीद की राह पर
फिर से चलना सिखाया…
उठ खड़ी हुई
लड़खड़ाते कदम से
उस हाथ ने मुझे
खड़े होने की ताकत दी
जो सदैव मेरे सिर पर था
कदम बढ़ाया उस राह में
जहाँ मुझे जाना था
तैरना न आता था!
पता नहीं था बिना पुल के
नदी का पार
कैसे पाना था…
आँखें खुली तो पाया
एक ऐसे स्थान पर
जहाँ से मैं अनजान
शायद यहीं
ईश्वर को पहुंचाना था
कड़क धूप में खड़ी
बीच राह में
तलाश रही एक छाँव
जो सदैव मेरे सिर पर
आपके हाथ से थी…
तपती-जलती-सहती
याद किया उन्हीं शब्दों को…
हारना नहीं, धैर्य छोड़ना नहीं
लड़ना हर उस परिस्तिथि से
जो तुम्हें मजबूत बनाती है
अनुभव दिलाती है
जीना सिखाती है
जब तक संघर्ष नहीं
जीवन का कोई अर्थ नहीं…
न आपका हाथ यहाँ
न आपका साथ यहाँ
हैं आपके वचन
रहेंगे जीवनपर्यंत
फिर से हिम्मत दी
हौंसला दिलाया
उम्मीद की राह पर
एक बार फिर
चलना सिखाया…
पापा की प्यारी होती है
पर बेटी तो पराई होती है
वह जहाँ भी रहे
अपने पापा की
परछाई होती है।

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