कविता

*आखिर कब आओगे*

त्रेता बीता, द्वापर बीता,
कलयुग ने पांव पसारा है,
आखिर कब आओगे सतयुग मेरे?
चहुंओर विकृत नजारा है l

अत्याचार, व्यभिचार, वासनाओं…
का अब यहां रेला है,
पग-पग छलता मुखड़ा जो
पहने सज्जनता का चोला है l
कलयुग ने पांव पसारा है,
आखिर कब आओगे सतयुग मेरे?
चहुंओर विकृत नजारा हैl

ईर्ष्या -द्वेष, घृणा… वश मन ने
मानव हृदयाघात खेला है,
प्रेम स्वार्थ पर टिका हुआ
‘मैं’, ‘मेरा सब’ का मेला है l
कलयुग ने पांव पसारा है,
आखिर कब आओगे सतयुग मेरे?
चहुंओर विकृत नजारा है l

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