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बदल जाने दो सब
अपनी वाही-वाही के लिए लड़ते हो, कभी झूठ, कभी दिखावा का चोला पहनते हो, तुम्हारा साक्षी तुम्हें कैसे माफ करता है, सत्य जानकर भी असत्य स्वीकार करते हो। थोड़ा इतिहास के पन्ने पलट लो, ऑखें खोलो स्मरण कुछ कर लों भूखे लड़े, प्यासे मरे, इस देश के लिए हॅसकर फॉसी चढ़े, क्या रिश्ता था हमसे वाह ! क्या रिश्ता था वतन से । दूसरों के लिए जिए, जीवन हमें बता अमर हुए। और हम जीकर भी रोज मरते हैं, स्वार्थ के कीचड़ से, स्वयं को बदरूप, बदरंग और दुर्गंध भरते है । मानवता अब तो जगाओ । कब तक मुखौटा पहनोगे अब तो उतारो, अपने सत् रूप को जानो, पहचानो…
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मैं चलती हूं….
मुस्कुराता चेहरा बहते अश्रु, कपोलों से पौंछती उंगलियों से उठती कलम, प्रश्न करती स्वयं से चलूं या नहीं? कितना लिखा? क्या – क्या लिखा? सब कुछ लिखा…! किसने समझा? कितना बदला? आज भी सब वही है, वहीं हैं। मुखौटा पहने ये पुतला खुश करने का प्रयास, बेजान होकर भी दिखावे का ढंग जो भ्रमित कर खींचता अपनी ओर, वक्त की ढलती शाम में बदलता मुखोटे का रंग और पुनः उदास, थकी, ठहरती सी बस एक उम्मीद में, ‘सब बदलेगा‘ मैं चलती हूँ……..
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“अच्छा ही होगा”
राधा और शिवा दोनों भाई बहन रेलवे स्टेशन जाने के लिए बस में चढ़े l वे दोनों ही बहुत घबराए हुए थे क्योंकि रेल छुटने का समय और बस स्टॉप से स्टेशन पहुंचने का समय लगभग समान ही था l वे सोच में थे की रेल पकड़ भी पाएंगे या नहीं l बस से उतरते समय एक दिव्यांग ने शिवा से मदद मांगी कि वह स्टेशन तक पहुंचा दे l शिवा ने कुछ सामान अपने कंधे पर लादा और कुछ राधा को देकर, आगे बढ़े l राधा ने एक बार शिवा से कहा भी कि हम लोगों को रेल मिलना बहुत मुश्किल है और इतनी भीड़ में कैसे इस दिव्यांग…