कविता

मैं चलती हूं….

मुस्कुराता चेहरा
बहते अश्रु, कपोलों से पौंछती
उंगलियों से उठती कलम,
प्रश्न करती स्वयं से
चलूं या नहीं?
कितना लिखा? क्या – क्या लिखा?
सब कुछ लिखा…!
किसने समझा? कितना बदला?
आज भी सब वही है, वहीं हैं।
मुखौटा पहने ये पुतला
खुश करने का प्रयास,
बेजान होकर भी दिखावे का ढंग
जो भ्रमित कर खींचता अपनी ओर,
वक्त की ढलती शाम में
बदलता मुखोटे का रंग और
पुनः उदास, थकी, ठहरती सी
बस एक उम्मीद में,
सब बदलेगा
मैं चलती हूँ……..

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