• कविता

    *सत्य रूप छलता गया *

    जब किया प्रवेश नव संसार में, शून्य थी विचार में, शांत थी स्वभाव में। खुले जो यह पटल, सब कुछ अनजान सा चौंधयायी मैं, पर कुछ था पहचान सा । स्पर्श जो हुआ, बदली फिर आकार में ध्वनियों ने ऐसे जगाया,खोई फिर से भाव में। वक्त रूप बदलता गया, मेरा भी रूप ढलता गया खोकर माया नगरी में , मेरा सत्य स्वरूप छलता ही गया।