*सत्य रूप छलता गया *
जब किया प्रवेश नव संसार में,
शून्य थी विचार में, शांत थी स्वभाव में।
खुले जो यह पटल, सब कुछ अनजान सा
चौंधयायी मैं, पर कुछ था पहचान सा ।
स्पर्श जो हुआ, बदली फिर आकार में
ध्वनियों ने ऐसे जगाया,खोई फिर से भाव में।
वक्त रूप बदलता गया, मेरा भी रूप ढलता गया
खोकर माया नगरी में , मेरा सत्य स्वरूप छलता ही गया।