सुखी और संपन्न भारत की प्रतीक : गौ माता
तुल्यनामानि देयानी त्रीणि तुल्यफलानि च।
सर्वकामफलानीह गाव: पृथ्वी सरस्वती।।
(महाभारत, अनु. ६९/४)
अर्थात गाय, भूमि और सरस्वती, तीनों नाम एक समान हैं। तीनों का दान करने से समान फल की प्राप्ति होती है। यह तीनों मनुष्य की संपूर्ण कामनाएं पूरा करती हैं। परंतु आज ये तीनों दान लगभग समाप्त हो चुके हैं। शायद यही कारण है कि आज काल के विकराल रूप की भयावह स्थिति में सभी कामनाएं विफल हो रही हैं। जिस गृह में गौ माता का वास है, वहां कोई भी विषाणु का प्रवेश नहीं हो सकता। गाय के आसपास का स्थान सदा शुद्ध रहता है। वहाँ, गौमूत्र और गोबर से उत्सर्जित गंध, आस-पास की जहरीली वायु को अवशोषित कर, वातावरण को सदा स्वास्थ्यवर्धक रखती है । आज संपूर्ण विश्व ‘कोरोना’ नामक भयानक महामारी से पीड़ित है। इस परिस्थिति को देखते हुए पुरानी बातें जो हमने अपने दादा-दादी से सुनी, स्वयं भी बचपन में अंशत: अनुभव किया या आज मात्र पुस्तकों में पढ़ने को मिलती हैं, उनकी आवश्यकता सर्वप्रथम प्रतीत हो रही है। यदि आज पूर्व काल की भांति गौओं की संख्या और उनकी घर-घर में उपस्थिति होती तो इस महामारी के भय को लेकर घर के अंदर बंद होकर ना बैठना पड़ता। जिस प्रकार मां प्रतिक्षण अपने बच्चों की रक्षा और संरक्षण में सदा सचेत और तत्पर रहती है उसी प्रकार गौ माता भी अपने परिवार अर्थात वह जहां निवास करती है, अपने चारों ओर सुरक्षा कवच की भांति सबकी रक्षा करती है चाहे वह स्वास्थ्य संबंधी कितनी ही बड़ी समस्या क्यों न हो। यदि कल्पना करके देखें कि दूध न होता, दही न होता और घी न होता तो हमारे भोजन का स्वाद हमारा तन और हमारा मन कैसा होता ? एक समय था जब व्यक्ति का जीवन आधार गाय-बैल ही होते थे। जिनके पास ये धन थे, वह सबसे ज्यादा समृद्ध समझा जाता था और सत्य भी यही है कि हमारा देश सदा से समृद्ध और संपन्न इसलिए रहा क्योंकि यहां गाय-बैलों की पूजा होती थी, उन्हें हर घर में एक सदस्य के रूप में स्थान मिलता था, जिस घर में इनका अभाव रहता, वह घर दरिद्र माने जाते थे। समय बदलाव के साथ व्यक्ति की सोच बदलती गई वह भावात्मकता से धीरे-धीरे दूर होता गया। वह, आधुनिकता में इस प्रकार बदलता गया कि भावात्मकता के स्थान पर मशीनें और क्रत्रिम जीवन को अपनाता गया। इसी बदलाव ने उसके तन-मन के साथ पूरे वातावरण को परिवर्तित कर दिया । एक समय था जब चारों और शुद्ध हवा थी, हरियाली थी, गाय-बकरी सुबह-शाम आस-पास चरते नजर आते थे। पशु-पक्षी वातावरण को शुद्ध रखते थे। गोबर से बने कंडों (उपला) की आग पर हाथ की रोटी बनाई जाती थी, जो शरीर को ताकतवर बनाने के साथ-साथ व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती थी ।शीत ऋतु में इन्हीं कंडो की अग्नि को घेर कर पूरा परिवार स्वयं को सर्दी से राहत पहुंचाता था। गर्माहट से स्वयं को राहत पहुंचाते हुए परिवार के सदस्य आपस में हंसी-ठिठोली करते थे, स्वस्थ परिवार के साथ सुखी परिवार हुआ करते थे। व्यक्ति के पास बहुत पैसा हो या ना हो परंतु हंसी थी, प्रेम था, जुड़ाव था, जिसे आम भाषा में ज़मीनी जुड़ाव कहते हैं। वह ज़मीनी जुड़ाव, जुड़ा था ज़मीन से, गाय-बैलों से और पेड़-पौधों से।
आज का व्यक्ति आसमां से जुड़ गया, जहां ऊंची-ऊंची इमारतें, बड़ी-बड़ी कारें और दिन के 10 से 15 घंटे, मशीनी यंत्रों का साथ, जिनके बिना व्यक्ति अपना जीवन निरर्थक समझने लगा। अब ऐसा बदलाव जहाँ न ज़मीन की बात है ना ज़मीनी, तो क्यों नहीं विनाश होगा? क्यों नहीं उस परमात्मा का कहर बरसेगा? ‘जिसने’ सदा क्षमा किया है, सदा किसी ना किसी संकेत द्वारा यह सिखाता रहा कि अब मत भागो, संभल जाओ….! परंतु व्यक्ति आधुनिकता की अंधी दौड़ में बस भागता ही गया। एक दिन ऐसा आया कि उसने अपना विकराल रूप दिखाया और सभी को डर से अपने घरों में छुपना पड़ा। एक बार फिर व्यक्ति को इस जमीन से जुड़ना पड़ा।
सच कहते हैं, जब तक चोट न लगे तब तक व्यक्ति नहीं समझता। आज गौ माता के दूध की अवश्यकता है क्योंकि उसके दूध में रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की शक्ति है। ‘कोरोना’ जैसी महामारी से लड़ने की शक्ति है। गौमूत्र की मांग तो इतनी बढ़ गई कि व्यक्ति आज इसे 500 रुपये प्रति लीटर खरीद रहा है। आज गाय के घी की आवश्यकता है…….। आज जब इस विषैले विषाणु ने सभी को अपने सामने कमजोर साबित कर दिया है, जहाँ आज व्यक्ति को गौ माता की सबसे ज्यादा आवश्यकता प्रतीत हो रही है। आज घर से बाहर ही नहीं घर के अंदर भी पेड़-पौधे लगाने की आवश्यकता आन पड़ी है। आखिर यह परिस्थिति क्यों बनी? क्योंकि व्यक्ति जब ईश्वर से विमुख होता गया, प्रकृति से संवेदनहीन होता गया, स्वयं से बहुत दूर हो गया, तब ईश्वर को भी विवश होना पड़ा, माध्यम कुछ भी रहा हो लेकिन वह इस मानव जाति को बहुत बड़ी सीख दे रहा है। एक बार पुनः उसकी बंद आंखें खोलने का प्रयास कर रहा है ।
आज समस्या बहुत चुनौतीपूर्ण बनकर सामने आई है, परंतु समस्या ने व्यक्ति को उसके स्वयं से जोड़ना शुरु किया है। आज वह फिर उसी भूमि पर उसी जगह खड़ा है जहां से उसने अपनी यात्रा शुरू की थी। सब कुछ होकर भी वह लाचार है, कुछ नहीं कर सकता क्योंकि ‘वह’ सर्वशक्तिमान परमात्मा दिखाना चाहता है, बताना चाहता है और स्वयं से जोड़ना चाहता है।
हमारे देश की संस्कृति, सभ्यता और समाज बहुत ही प्राचीन हैं। हमारे वेदों में प्रत्येक क्षण की महत्ता और हर कार्य के कारण का भी उल्लेख मिलता है। विश्व का सर्वप्रथम लिखित वेद ऋग्वेद में भी माता गौ की महत्ता का वर्णन मिलता है। भगवान इंद्र अपनी सभा में घोषणा करते हुए कहते हैं कि हे पोषण करने वाले व्यापक तथा शत्रु-दल पर आक्रमण करने वाले वीरवर! हमारे कर्म, गौ को प्रमुख स्थान देकर नियुक्त कीजिये और हमें कल्याणमय स्थिति में कीजिये जिससे हम सभी सुखी रहें। अर्थात गाय कि महिमा समझाइए। वैदिक मंत्र इस प्रकार है-
उत नो धियो गोअग्रा: पूषन विष्नवेवयाव: । कर्ता न: स्वस्तिमत: ।।
(ऋग्वेद १।९०।५)
देवताओं, ऋषि-मुनियों ने भी गौ माता की महिमा का वर्णन किया है। उसकी सेवा से बढ़कर कुछ नहीं बताया है। वह अमूल्य धन है, वह संपूर्ण औषधि है। उसमें संपूर्ण देवी-देवताओं का वास है एवं वह स्वयं में पूर्ण ब्रह्मांड है। जिसने भी गौमाता को हृदय से माना है, उसकी श्रद्धापूर्वक पूजा की है, उसने स्वयं को पा लिया है।
महर्षि च्यवन तपस्या करने के लिए जल के अंदर 12 वर्षों तक रहे। एक बार कुछ मछुआरों ने जल में जाल बिछाया। महर्षि च्यवन के साथ कुछ मछलियां भी जाल में फँसकर बाहर आ गईं। मछुआरों ने जब यह देखा तो महर्षि से क्षमा याचना करने लगे। महर्षि मछलिओं की भांति लंबी- लंबी सांस लेने लगे। मछुआरों ने जब इसका कारण पूछा तो ऋषि ने कहा कि यह मछलियां जीवित रहेंगी तो मैं जीवित रहूंगा अन्यथा इनके साथ मैं भी अपना शरीर त्याग दूंगा। मछुआरे ने यह बात सुनकर शीघ्र ही राजा के पास गए और सारी घटना महाराज नहुष को सुनाई। राजा नहुष, च्यवन मुनि के समक्ष पहुंचे और विनती की कि आपके लिए क्या सेवा की जाए? मुनि ने कहा इन मछुआरों ने बहुत मेहनत की है इसलिए आप इन्हें मेरा और मछलियों का मूल्य चुका दीजिए। राजा ने स्वर्ण मुद्राएं, आधा राज्य यहाँ तक कि अंत में संपूर्ण राज्य देकर महर्षि च्यवन का मूल्य लगाना चाहा, परंतु मुनि ने अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि आपका आधा या पूरा राज्य मेरा उचित मूल्य नहीं है। तभी गाय के पेट से जन्में गौताज मुनि वहां पहुंचे और उन्होंने राजा से कहा कि ऋषि-मुनियों का कोई मूल्य नहीं होता, वे अमूल्य होते हैं। इसी प्रकार गाय भी अमूल्य होती है, उसका भी कोई मूल्य नहीं लगाया जा सकता। इनकी कीमत में आप एक गौ दे दीजिए।
राजा ने महर्षि से कहा कि मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया है। मैंने, आपका यही उचित मूल्य समझा। महर्षि ने कहा- आपने मुझे उचित मूल्य देकर खरीदा। मैं इस संसार में गौओं के समान कोई दूसरा धन नहीं समझता। महर्षि च्यवन ने मछलियों के साथ मछुआरों को स्वर्ग जाने का आशीर्वाद दे दिया। अतः कहने का तात्पर्य है कि गौ माता अमूल्य है, सर्वगुणों की खान है, उसमें ईश्वर तत्व विराजमान है, बस एक श्रद्धा भाव ही है जो उसकी महत्ता से परिचित करा सकता है और उसके गुणों का अनुभव करा सकता है ।
आज का समय हमें जागने – जगाने का है और कुछ कदम पीछे हटने का है, प्राचीन परंपराओं और मान्यताओं को अपनाने का है। आधुनिकता अपनाना आवश्यक है परंतु उपयोगी, माननीय, सार्थक और पूज्यनीय बातों को छोड़कर नहीं अपितु उन्हें अपनाते हुए। आधुनिक हर उस चीज को अपनाते हुए आगे बढ़ना है जिसमें हमारा, हमारे समाज का और हमारे देश का हित हो। परिवर्तन, उन्नति अवश्य लानी है, परंतु स्वस्थ मन, स्वस्थ तन और स्वच्छ वातावरण के साथ, जहाँ अपना वही प्राचीन समृद्ध भारत एक बार पुन: सोने की चिड़िया बने जिसकी चहचहाट हर व्यक्ति के चेहरे पर चमक के साथ एक मुस्कान दे और अपने सभी पड़ोसियों को मधुर संगीत…।
गोसम्पदा, मासिक पत्रिका (विश्व हिंदू परिषद) सितंबर, 2020 अंक में प्रकाशित।