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संत साहित्य की वर्तमान प्रासंगिकता (संत रामानन्द)

संत रामानन्द


कहते हैं अति किसी की भी अच्छी नहीं होती, बदलाव संसार का नियम है…. ऐसे ही एक बदलाव की आवश्यकता थी समाज को जब जाति-पाँति, ऊंच-नीच, छुआ-छूत जैसी बीमारियों ने चारों ओर अपने पैर फैला लिए थे। सांप्रदायिकता, धर्म- अधर्म और धर्म बदलाव जैसे घातक विचार से समाज ग्रसित हो रहा था। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है;
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥१
धर्म की हानि हो और ईश्वर चुपचाप देखता रहे, ऐसा असंभव है! अतः समाज में बदलाव होना ही था और इस बदलाव का बीज बोया संत रामानंद जी ने, जो ईश्वर के अवतार रूप में प्रकट हुए। बुद्ध हो या महावीर, इन्होंने ऐसे समय में समाज को पथ प्रदर्शन दिया जब समाज को आवश्यकता थी ।
सर्वप्रथम इतने बड़े संत रामानंद जी को लिखने के लिए मैं उनका आशीर्वाद लेना चाहूंगी क्योंकि एक संत को कलम के द्वारा शब्दों से नहीं लिखा जा सकता । संत एक ऐसा गुण है जो निर्गुण है, निराकार है, ईश्वर है, और ईश्वर के लिए लिखना मेरे लिए उनकी इच्छा के बिना असंभव है ।
उत्तर में भक्ति संप्रदाय रामानंद जी के द्वारा ही प्रारंभ हुआ। रामानंद जी नहीं तो न कबीर है, न तुलसी , न दादू है, न फरीद, न रविदास, न मीरा, और न ही सूरदास जैसे कोई भी महान संत होंगे जिन्होंने देश के निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभाई । रामानंद जी द्वारा काशी जैसे योग और ज्ञान पीठ में जहां की एक – एक आत्मा में ज्ञान और योग बसता है, वहां भक्ति प्रारंभ करना एक बहुत बड़ी तपस्या है। आचार्य ने भक्ति रूपी ऐसे सुगंधित पुष्प का पौधा लगाया जिसकी सुगंध आज भी चहुं ओर ऊर्जा और शक्ति का संचार कर रही है।
हम मंदिर के कलश को देखते हैं लेकिन उसके नीचे की नीव को नहीं, जो पत्थर की है। उसे भूल जाते हैं। रामानंद जी मध्य काल में उत्तर भारत के भक्ति संप्रदाय का वह मूल आधार है जहां से भक्ति का आविर्भाव होता है ।
ज्ञानेश्वर, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि संतो के बारे में हम सदा सुनते-पढ़ते आए हैं परंतु वर्तमान काल मे रामानंद जी के बारे में बहुत कम लिखा और पढ़ा जा रहा है। मैं अत्यंत हर्ष महसूस कर रही हूँ कि उन्हीं की कृपा से उन्हे पढ़ने –लिखने का अवसर प्राप्त हुआ।
स्वामी रामानन्द जी के जन्म काल और परिस्थियों को लेकर अनेक भ्रांति हैं । माना जाता है कि उनका जन्म ब्राह्मण कुल मे माघ कृष्ण सप्तमी सन 1299 ई॰ में प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ । उनके पिता श्री पुण्य सदन शर्मा तथा माता श्रीमती सुशीला देवी थीं । संगम से कुछ दूर एक छोटी सी कुटिया अचानक दैवीय प्रकाश से जगमगा उठी और इस अलौकिक प्रकाश को कुछ लोगों ने रामावतार कहा तो कुछ ने ब्रह्म का अंश।
भक्ति संप्रदाय में कबीर बहुत बड़ा नाम है । कबीर कितने भी लोकप्रिय या बड़े हो जाएं परंतु रामानंद जी के समतुल्य नहीं हो सकते । बच्चा कितना भी बड़ा हो जाए मां-बाप ही सदैव बड़े होंगे, शिष्य कितना भी ज्ञानी बन जाए गुरु से बड़ा गुरु से ज्यादा ज्ञानी नहीं हो सकता । स्वयं कबीर द्वारा इसे उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया गया है;
एक बार एक योगी (घमंडी) गंगा में पैदल जाता है और रामानंद जी को चुनौती देता है कि क्या आप इस प्रकार चल सकते हैं । तभी कबीर जी कहते हैं; इसके लिए मेरे गुरु की क्या आवश्यकता है? मैं ही बहुत हूं! वह धागे का जाल बनाकर फेंकते हैं तो वह आसमान में तैरने लगता है । वह उस पर चलकर पार हो जाते हैं । वह घमंडी योगी आश्चर्यचकित होकर हाथ जोड़कर पूछने लगता है कि यह सब कैसे हुआ, यह कौन सी शक्ति है ? कबीर जी कहते हैं कि यह मेरे गुरु के नाम मात्र से संभव हुआ है तो विचार करो मेरे गुरु में कितनी शक्ति होगी ।
संत समाज के पथ प्रदर्शक होते हैं । वह ऐसे समय में समाज के रक्षक और सेवक के रूप में प्रत्यक्ष होते हैं जब असमंजसता हो, द्वंद हो, संघर्ष हो । ऐसा ही समय था जब देश धर्म, संस्कृति के क्षेत्र में द्वंद ग्रस्त और संघर्षरत था । विदेशी लोग अपने देश पर अधिकार स्थापित करने में लगे हुए थे । समाज अंधविश्वास में डूब रहा था । चारों ओर एक ऐसा भयावह विचलन था जिसमें देश गर्त में जा रहा था ।
इस संघर्षरत और अंधकारमय परिवेश में रामानंद जी एक सूर्य की तरह उदय हुए और जिसकी किरणें रामभक्ति रूप में चारों ओर फैली और उस भयावह विचलन को नष्ट कर एक नई दिशा प्रशस्त की और जिसका प्रभाव आज तक भी दिखाई देता है। तत्कालीन समाज जहां जाति –पाँति की इस अंधी सोच में कहीं खो रहा था वहीं रामानंद जी ने रैदास और कबीर जैसे निम्न जाति को अपना शिष्य बना देश को ऐसे महान संत दिए जिन्होंने लोक कल्याण का बीड़ा उठाया । जहां समाज भक्ति – साधना में स्त्रियों को बाहर आने के लिए बाध्य किया जाता था वही रामानंद जी ने स्त्रियों को अपनी शिष्या बना एकता समानता का भाव पैदा किया । राम भक्ति के सागर में डुबकी लगाकर सबको हर विपदा – व्यथा से मुक्ति का साधन बताया ।
कबीर और तुलसी दो ऐसे महान संतों का आविर्भाव जिनका संदेश न केवल भारत अपितु पूरी दुनिया में आज भी प्रासंगिक है, गुरु रामानंद जी की कृपा का फल है । राम भक्ति हो या कृष्ण भक्ति, सगुण भक्ति हो निर्गुण भक्ति या गुरु भक्ति इन सभी ने व्यक्ति को अंधे कुएं से उबारा, मुरझाए पौधे में पानी डाल कर फिर से हरा-भरा किया । रामकथा ने लोगों के हृदय में भक्ति और श्रद्धा का ऐसा बीज बोया कि उसे विश्वास हो गया कि विजय सत्य की है, झूठ कितना भी शक्तिशाली हो उसकी सदैव हार निश्चित है। अन्याय कितना भी लाभ उठाएं उसका अंत अत्यंत कष्टदाई है ।
राम भक्ति द्वारा आदर्श स्थापित कर समाज में ज्ञान का दीप जला उसमें शक्ति का संचार किया गया। रामचरितमानस ने देश- विदेश में अपनी महत्ता को स्थापित कर व्यक्ति को जीवन जीने का एक नया आधार दिया। रामानंद जी के दर्शन भक्ति तथा राम भक्ति का प्रभाव आज भी विद्यमान है परंतु वह कबीर और तुलसी के द्वारा जन – जन के हृदय में प्रसारित हो रहा है।
रामानंद जी की शक्ति का तप कबीर और तुलसी में देखने को मिलता है । जहां एक और कबीर माया बंधन से मुक्त हो ‘ढाई आखर प्रेम का’ रहस्य समझते हैं वही तुलसी ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ ईश्वर की महिमा का बखान करते हैं।
रामानंद जी की सोच व्यापक थी जिसमें ‘जाति- पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’ जैसे श्रेष्ठ क्रांतिकारी चिंतन ने समाज को नया मार्ग दिया। दलित, कमजोर, स्त्री, लेखक, चिंतक को सत्य की ओर समाज के उत्थान की नई दिशा देकर बताया कि देश, भेद- भाव मिटाकर समानता का भाव पैदा करके ही शक्तिशाली बन सकता है । हिंदू- मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्ति मार्ग का विकास किया । बलहीन, साधनहीन जनता में राम भक्त हनुमान की महत्ता प्रतिष्ठा की । स्वामी रामानंद जी ने हनुमान की आरती का सृजन गायन किया ‘आरती श्री हनुमान लला की’…….। रामानंद जी ने अपने भजन- कीर्तन प्रताप से घर-घर हनुमान भाव की पूजा को पहुंचाया । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में अवध किसान आंदोलन में रामानंद जी की प्रेरणा मूर्ति हनुमान को जनता में रमाया; ‘मोहे अब भा भरोस हनुमंता, बिनु हरि कृपा मिलहि नहीं संता।‘
गीता का भाष्य रामानंद ने किया और उसी भाष्य से कबीर और तुलसी की दो महान परंपराओं ने भारतीय कला दर्शन इतिहास में नया रूप पाया ।
रामानंद जी की एक रचना ‘रामरक्षा स्त्रोत्र’ को पढ़कर एक पूरी परंपरा मानसिक व्याधियों से मुक्ति पा रही है। नाभादास का ‘भक्तमाल’ साक्षी है कि उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन का नेतृत्व संत रामानंद जी ही करते रहे हैं ।२
स्वामी जी की हिंदी में निर्गुण वादी निम्न रचनाएं गुरु ग्रंथ साहब में संग्रहित हैं-
१- मैं हरी बिना फूना रखवारो । चित्त दै सुमिरौ जिन जन हारो ।।
संकट ते हरी लेत उबारि । निसदिन सुमरौ नाम मुरारि ।।
नाँव न केवल सबसे । रटत अघट घट होइ उजारा ।।
रामानंद यूँ कहै समुझाई । हरि सुमरिला जम लोकना जाई ।।

२- कहा जाईये हो धरि लाग्यो रंग । मेरौ चित्त चंचल मन भयो अपंग ।
जहां जाइये तहँ जलब पषान । पूरि रहे हरि सब समान ।।
संत गुरु में बलिहारि तोर । सकल विकल भ्रम जारै मोर ।।
रामानंद रामै एक ब्रह्म । गुरु एक सबद काटै कोटि क्रम्म ।।३

रामानंद जी के संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कहना सर्वथा उचित है- “स्वामी रामानंद संस्कृत के पंडित, उच्च ब्राह्मण कुल उत्पन्न और एक प्रतिभाशाली संप्रदाय के भावी गुरु थे। उन्होंने देशी भाषा में कविता रची और ब्रह्मांड से चांडाल तक को राम नाम का उपदेश दिया। उनके हाथ से छूकर लोहा भी सोना हो गया।“४
तत्वमीमांसा, जाप्यमंत्र, इष्टदेव का स्वरूप- विवेचन, मुक्तिमार्ग, वैष्णवमत, श्री राम की षोडशोपचार पूजा, विशिष्टद्वेतवाद, निर्गुण- सगुण समन्वय आदि, संत रामानंद जी के लेखन के मुख्य विषय रहे ।
स्वामी रामानंद जी ने भक्ति भावना की अभिव्यक्ति द्वारा मानव जीवन की सार्थकता हरीभक्ति में बताई है। रज्जबदास के संग्रह ग्रंथ ‘सर्वांगी’ में उनका निम्नलिखित पद पाया जाता है-

हरी बिन जन्म वृथा खोयो रे ।
कहा भयो अति मान बढ़ाई, धन मद अंध मति सोयो रे ।।
अति उतंग तरु देखि सुहायो, सैवल कुसुम सुवा सेयो रे ।
सोई फल पुत्र- कलत्र विषे सुख अंति सीस धुनि- धुनि रोयो रे ।।
सुमिरन भजन साध की संगति, अंतरि मन मैल न धोयो रे ।।
रामानंद रतन जम त्रासे, श्रीपति पद काहे न जोयो रे ।।५

इस प्रकार रामानंद जी ने लोक भाषा हिंदी को अपनाकर सत्य को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया है।
“प्राप्यवाची ततश्च रा पदबोधानाम आम: प्राप्यो य: स: राम:।”६

अर्थात जो नित्य ज्ञान, आनंद आदि पदार्थों का प्राप्य, प्रापक और आधार है उसे राम कहते हैं।
रामानंद जी की परंपरा में कबीर दास, रैदास, सेन, धन्ना, अनंतानंद, सुखानंद, भवानंद, पीपा, सुरसुरी और पद्मावती जैसे शिष्यों ने परंपरा को प्रकाश दिया तो साधिका पद्मावती ने उनकी शिष्या बन स्त्री का मान बढ़ाया ।
संत रामानंदजी सतगुरु की उपाधि से सुशोभित है । सद्गुरु का अर्थ है ; ‘मानवीय संस्कृति का रक्षक, पत्र दृष्टा और लोक भाभी व्यक्तित्व।‘ सत्य को केंद्र में रखकर लिखी गई उनकी रचना ‘रामरक्षा’ है । यह रचना उन्हें हिंदी संत काव्य परंपरा शिखर पर अधिकृत करती है। रामानंद जी ने जिस समय यह रचना की वह हिंदी की एकदम प्रारंभिक स्थिति थी । न केवल विषय, ज्ञान, दृष्टि, दर्शन, साधना और मानव के कल्याण की दृष्टि से अपितु हिंदी के विकास में इस रचना के माध्यम से उनका अमूल्य योगदान है। उनकी ऐसी अनेक रचनाएं जैसे- ‘सिद्धांत पटल’, ‘ज्ञान लीला’, ‘ज्ञान तिलक’ तथा ‘योगचिंतामणी’ हिंदी की अमूल्य मणि है ।
संत रामानंद, संत वल्लभाचार्य, संत मध्वाचार्य, संत चैतन्य महाप्रभु जैसे लोकनायक और कवि जायसी, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई जैसे कवियों के कारण भारतीय साहित्य का मध्यकाल सच्चे अर्थों में लोग जागरण काल रहा है।
रामानंद जी के शिष्य परंपरा में महाकवि तुलसीदास का रामचरितमानस विश्व काव्य राम का चरित्र उत्तम पुरुष आदर्श जीवन का आधार बन गई है । इस भटकती मानवीय संस्कृति के काल में रामचरितमानस एक विश्व संस्कृति की नई रचना करने में सार्थक सिद्ध हो रही है वहीं कबीर की वाणी जो उनके गुरु रामानंद से प्रेरित है समाज में फैले पाखंड, जाति-पाँति, ऊंच-नीच, भेद-भाव, अंधविश्वास और आडंबर जैसे विषैले प्रभाव से मुक्त कर रही है ।
स्वामी दयानंद, विवेकानंद, रविंद्र नाथ टैगोर, भारतेंदु, सुब्रमण्यम भारती, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी का चिंतन आधार रामानंद का आदर्श और चेतना का भाव है जिसमें जातिवाद, शूद्र, स्त्रियों का अधिकार, मोक्षवाद से भक्तिवाद को जन्म दिया और कबीर तुलसी को आगे करके सांस्कृतिक नवजागरण के अग्रदूत बने । तिलक और गांधी का टीका का भाष्य स्वाधीनता संग्राम का आधार बना, यह संत रामानंद जी की ही देन है ।
रामानंद जी ने भारत भ्रमण कर तीर्थ यात्रा के द्वारा भारत के चिंतकों, साधकों से मिलकर देश की सांस्कृतिक समस्याओं हेतु समाधान दिए, इससे भारतीय एकता को दृढ़ता मिली साथ ही सांस्कृतिक राष्ट्रीयता पुष्ट हुई थी । आज भी भारत के चिंतक तथा साधक भारतीय सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्ता के प्रति जन-जन को जागरूक कर रहे हैं, आस्था जगा रहे हैं । इन सबके पीछे आचार्य रामानंद जी की ही प्रेरणा है । नए युग का भारत अपनी प्राचीन अमूल्य धरोहर, दर्शन, अपनी भाषा को सुरक्षित रखने में सक्षम होगा, साथ ही उसका अनुसरण कर, स्वयं एवं लोक कल्याण हेतु अग्रसर होगा । वह धर्म, संस्कृति एवं राष्ट्रीयता के जीवंत प्रतिमान राम और संत रमानन्द को अपनाकर प्रगति के शीर्ष पर सुशोभित होगा ।

संदर्भ :
१- गीता ४/७
२- डॉ उदय प्रताप सिंह, तीर्थराज प्रयाग और रामभक्ति का अमृतकलश, पृष्ठ- १६६
३- डॉ उदय प्रताप सिंह, तीर्थराज प्रयाग और रामभक्ति का अमृतकलश, पृष्ठ- १८६
४- वही ।
५- रामानंद की हिंदी रचनाएं, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, पृष्ठ- ९
६- श्री रामानंदाचार्य, श्री वैष्णव्मताब्ज्भाष्कर, किरणप्रभा, पृष्ठ- ३८१

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