सृष्टि की श्रेष्ठ रचना
नारी एक ऐसा रहस्य है जिसे सभी ने अपने -अपने दृष्टिकोण से जानने का प्रयास किया। वेद-पुराणों और शास्त्रों में उसका स्थान सर्वोपरि बताया गया है।
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”
जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी श्रेष्ठ एवं महान है। वह संपूर्ण सृष्टि में एकमात्र ऐसी रचना है जो प्रेम, करुणा, दया, धैर्य, सहनशीलता, क्षमा आदि सद्गुणों से पूर्ण है। जिसे वह अर्जित नहीं करती अपितु यह उसके मूल प्रवृति में समाहित होते हैं। वह इन गुणों के साथ जहां भी वास करती है वह स्थान पवित्र, सुखमय, आनंदपूर्ण, वैभवशाली, समृद्धि, शांतिपूर्ण में परिवर्तित हो जाता है। नारी अपने इतने रूपों को धारण करती है कि संसार में उसके समान इस कला का अन्य कोई अधिकारी नहीं। देवताओं द्वारा ‘देवी’ की स्तुति करते हुए कहा गया है-
“तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।”
अर्थात हे देवी! जगत की स्त्रियां समष्टि और व्यष्टि रूप से आपके भेद हैं, आपकी ही विभिन्न मूर्तियां हैं।
नारी रूप में वह ‘देवी’ के प्रत्येक गुण को समाए होती है। नारी की प्रेरणा ही ‘महाशक्ति’ रूप में व्यक्ति को सफलता प्रदान करती है। किसी भी दुर्लभ कार्य को करने की शक्ति, नारी की प्रेरणा द्वारा ही प्राप्त होती है। वह ‘महासरस्वती’ के रूप में अपनी भावनाओं से कला को सजीवता प्रदान करती है। यदि कला से उसकी भावना को पृथक कर दिया जाए तो संपूर्ण संसार की कला, भावविहीन व निर्जीव हो जाएगी। वह, ‘महालक्ष्मी’ बन घर में सुख, समृद्धि, शांति को धारण किए न मात्र अपने परिवार अपितु समाज एवं राष्ट्र के उत्थान मे सहायक सिद्ध होती है।
‘मातृरूप’ में नारी अपने शिशु की गर्भावस्था में रक्षक बनकर उसके दीर्घायु की प्रार्थनाएँ करती है। उसके जन्मोपरांत, अन्नपूर्णा बनकर अपने हृदयामृत से पालन -पोषण करती है। सभ्य आचरण धारण किए, वह विदुषी बनकर उसे संस्कारित करती है। तदुपरांत उसे उचित मार्ग प्रशस्त कर अच्छे -बुरे का आकलन करने में सक्षम बनाती है। माता कुंदन देवी मालवीय, माता कस्तूरबा, मैसूर की महारानी लक्ष्मम्मण्णी, रामाबाई रानाडे आदि इसके उदाहरण हैं।
माँ, बच्चे को श्रृंगारित करती हुई, वीरता की कहानियां सुनाकर, वीभत्स का त्याग करते हुए, बच्चे को आहत पहुंचाने वाले के लिए भयानक रूप धारण करती है। वह, बच्चे के गलत करने या चोरी करने पर उसे अपना रूद्र रूप दिखाती है तो अद्भुत तेज लिए उसके लिए बड़े – बड़े स्वप्न भी देखती है। अपने बच्चे को कष्ट या बीमारी में देखने पर करुणा भाव से भर जाती है वहीं बच्चे के शरारती स्वभाव को अपनाते हुये सभी को हास्य रसोपान कराती है। वह त्यागी, तपस्विनी, धैर्य धारण किए हुए शांत स्वरूप में नवरसों को गृहण करने वाली होती है।
‘नारी’ विधाता की इतनी सुंदर रचना है कि वह सभी के साथ मित्रता का व्यवहार रखते हुए हर कदम पर साथ देने के लिए तैयार होती है। वह मित्र रूप में प्रत्येक रिश्ते के साथ सही निर्णय लेने और उचित सुझाव देने के लिए तत्पर रहती है।
पत्नी रूप में नारी ‘भारत’ को सदा गौरवान्वित करती आई है। वाल्मीकि रामायण में बताया है कि रावण के द्वारा बारंबार प्रार्थना करने पर सीता ने सदा अवहेलना की और कहा –
‘इस निशाचर रावण से प्रेम करने की बात तो दूर रही मैं तो इसे अपने पैर से नहीं – नहीं, बाएँ पैर से भी नहीं छू सकती।’
राष्ट्रकवि ‘मैथिलीशरण गुप्त’ द्वारा रचित ‘साकेत’ के प्रथम सर्ग में लक्ष्मण स्वयं को उर्मिला को दास कहते हैं। इसपर उर्मिला अपने स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए कहती है-
दास बनने का बहाना किसलिए? क्या मुझे दासी कहना इसलिए?
देव होकर तुम सदा मेरे रहो। और देवी ही मुझे रक्खो, अहो!
इस प्रकार ‘पत्नी’ स्वयं के और अपने पति के सम्मान, स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए सदैव तत्पर रही है। इसके लिए उसे कोई भी त्याग व किसी भी कठिनाई का सामना करना पड़े।
नारी, प्रत्येक रिश्ते के साथ अपना एक नया रूप धारण करते हुये अलग एहसास, अलग भाव, अलग धारणा के साथ बड़े सुंदर रूप से निभाती भी आई है। अंतत: यही कहा जा सकता है –
मन में रख विश्वास, तूने लिखी कई कहानी।
नारी तेरे रूप अनेक, तू सबला, स्वाभिमानी ।।