कविता

संघर्ष ही शक्ति

बिखरी लालिमा नभ-धरा पर
बढ़ते कदम सब थम गए,
जो जहाँ थे खड़े वहीं पर
सबके सब पिघल गए ।
कोई घर से दूर तो कहीं
माँ-बाप की चिंता सता रही,
मिलने की है आस पर
निराशा हाथ आ रही ।
कुछ ऐसा मंजर बदल गया
घर के अंदर सब ढल गया,
जन्मा ऐसा राक्षस जग में
निगल रहा दुर्बल को पल में।
हाहाकार यूँ मच रहा
जिसको छुआ वो सिहर रहा,
जीवनभर जिसने साथ दिया
तन वह लावारिस हुआ ।
हर रिश्ता अब दूर हुआ
हालात से मजबूर हुआ,
बच्चों की हँसी गुम हो गई
चार दीवारों में फँस गई ।
रोज़ आमदनी पर जो निर्भर
जीवन हुआ बहुत ही दुर्लभ,
ठहर गया ये मानव जीवन
प्रतीक्षा में बैचेन हुआ मन।
हवा भी विषमुक्त हो गई
प्रकृति सबसे कुछ तो कह रही,
पशु-पक्षी स्वतंत्र हो गए
स्वामी आज परतंत्र हो गए ।
खड़े वीर सफेद पोशाक में
खड़े वीर खाकी मिज़ाज में,
हर क्षण जान बचाने को
सुरक्षा हथियार बनाने को ।
किया नियंत्रण हर राक्षस पर
कोरोना के हर भय पर,
संघर्ष ही शक्ति प्रदान करे
हर मुश्किल को आसान करे।

8, मार्च 2021 राजस्थान पत्रिका, चेन्नई में प्रकाशित

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