यात्रा वृतांत

मेरी अविस्मरणीय यात्रा

जीवन का एक नया अध्याय’

यात्रा’ मात्र एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने का नाम नहीं है या नए स्थान पर घूमने और मन बहलाने का साधन मात्र भी नहीं है; ‘यात्रा’ एक नए स्थान से परिचित कराती है और सदैव के लिए नया संबंध स्थापित करती है; उस स्थान से जुड़ी प्रत्येक जानकारी के साथ हमारा ज्ञानवर्धन करती है; विचारों में परिवर्तन लाती है; एक नई दृष्टि देती है; इतना ही नहीं जीवन रूपी पुस्तक में एक नए अध्याय के रूप में जुड़ जाती है। यहाँ तक कि हम कह सकते हैं कि कभी-कभी ‘यात्रा’ जीवन को नयी अनुभूति के साथ परिवर्तित ही नहीं करती, अपितु जीवन का अमूल्य अंग बन जाती है।
यात्रा ने अपनी नयी-नयी अनुभूतियों से मेरे जीवन को सदैव सिंचित किया है, अतः वह मेरे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस लेखन यात्रा के द्वारा यहाँ ऐसी ही एक यात्रा को साझा करना चाहूँगी।
सन् २०१६ की बात है, मैंने और मेरे पति ने मदुरै और रामेश्वरम की यात्रा करने की योजना बनाई। योजनानुसार, २७ नवंबर, २०१६, हम मदुरै पहुँचे। दो दिन मदुरै यात्रा के बाद, हमने बस द्वारा वहाँ से रामेश्वरम जाने के लिए विचार किया।
२९ नवंबर, २०१६, दोपहर लगभग ढाई बजे हमने बस द्वारा रामेश्वरम की यात्रा प्रारंभ की। बस यात्रा के दौरान मेरे पति कई स्थलों की चर्चा कर रहे थे और तभी उन्होंने बताया कि रामेश्वरम से पहले एक जगह है ‘उत्तरकोसमंगै’, जहाँ बहुत ही प्राचीन शिव मंदिर है। उन्होंने पूछा – “क्या तुम उसे देखना चाहोगी?”
मैंने कहा – “क्या बस उस जगह पर रुकेगी?”
पति ने कहा – नहीं! रास्ते में रामनादपुरम आएगा, वहाँ से रास्ता जाता है।
पहले, मैंने सोचा कि जाना तो रामेश्वरम है, परंतु बीच में ही दूसरी यात्रा?
जब पति ने बताया कि इसे संसार का सबसे प्राचीनतम शिव मंदिर माना जाता है, तो यह बात सुनकर मेरा मन बहुत आकर्षित हुआ, परंतु असमंजसता अभी समाप्त नहीं हुई थी। मन में विचार उठ रहे थे कि उसके बाद हमें रामेश्वरम जाने के लिए क्या सुविधा होगी? क्या वहाँ से कोई साधन है, रामेश्वरम जाने के लिए?
उन्होंने कहा – रामनादपुरम से बस चलती हैं और वहाँ पहुँचकर पता कर लेंगे। भगवान की इच्छा होगी तो वही हमें रास्ता भी दिखाएंगे।
उत्तरकोसमंगै जाने के लिए जिला रामनादपुरम पड़ता है, जो रामेश्वरम से लगभग ५५ किमी पहले आता है, बस वहाँ जैसे ही रुकी, हम दोनों उतर गए।
लगभग साढ़े पाँच बज रहे थे। हम पास के एक होटल में गए। वहाँ, हमने इडली खाई और कॉफी पी। उसके बाद बाहर निकलकर, मेरे पति ऑटो वालों से पूछने लगे कि उत्तरकोसमंगै जाने के लिए क्या सुविधा है। बहुत से ऑटो वालों ने मना कर दिया कि शाम का समय है, उस रास्ते से बहुत कम ही लोग आते-जाते हैं, ज़्यादा सुरक्षित भी नहीं है इसलिए हमें जाना मुश्किल होगा। लेकिन एक ऑटो वाला तैयार हो गया। हमने उसे पहले ही परिस्थिति बता दी थी कि हमें वापस भी आना होगा क्योंकि हमें रामेश्वरम जाना है। हम दोनों ऑटो से लगभग १८ किमी दूर स्थित, अपने लक्ष्य की ओर बढ़ गए।
रास्ता कुछ बेहड़ जैसा दिखाई दे रहा था; कभी बहुत हरे-भरे जंगल दिख रहे थे तो कभी दूर-दूर तक काँटों के वृक्ष, जैसे किसी अनजान, सूनसान और अलग सी दुनिया में हम प्रवेश कर रहे हों। कोई पशु-पक्षी भी नज़र नहीं आ रहे थे। सूर्य भी अपनी ढलान यात्रा के अंतिम चरण पर था। लगभग आधा घंटा की ऑटो यात्रा के बाद हमें दूर से मंदिर दिखाई दिया, साथ में छोटा सा गाँव उत्तरकोसमंगै। वह बहुत एकांत स्थान पर ठीक वैसा ही दिखाई दे रहा था जैसे दूर-दूर तक फैले रेगिस्तान में खड़ा कोई एक वृक्ष हो।
उस स्थान पर मंदिर के निकट पहुँचे। वहाँ कुछ दुकानें थीं, गिनी-चुनी कुछ झोपड़ियाँ और कुछ छोटे-छोटे पक्के घर भी थे। लेकिन यह स्थान बिल्कुल अलग दिख रहा था जैसे कि किसी और दुनिया में बना हुआ है। अद्भुत दृश्य था। वहाँ कुछ ऑटो खड़े हुए थे; एक बस भी खड़ी थी। दूर से ही देखने में पता चल रहा था कि मात्र मंदिर ही नहीं वह स्थान भी कितना प्राचीन है और लुप्त होती संपदाओं की श्रृंखला में आज की आधुनिकता से किसी भी प्रकार अपने बहुमूल्य अस्तित्व को बचाये हुए है।
विशाल एवं भव्यता गृहण किए मंदिर के मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश करते हुए, मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे किसी अन्य ग्रह पर विचरण कर रही हूँ। अंदर प्रवेश करते ही, जैसे समय ठहर गया हो; कुछ क्षण के लिए मैं निस्तब्ध रह गई और उस असीम, अनंत, अद्भुत, अनिवर्चनीय अनुभूति में, स्वयं समाहित हो गई। मंदिर की कलाकृति और अनोखे रंगों का सजीव चित्रण लिए मेरी दृष्टि, प्रत्येक क्षण अंतर्मन को भी सुशोभित कर रही थी। सबसे पहले मंदिर के मुख्य देवता भगवान् शिव जिन्हें ‘मंगलनादर’ और देवी पार्वती जिन्हें ‘मंगलेश्वरी’ कहा जाता है, उनके दर्शन किए। इसकी प्राचीनता के संबंध में तमिल साहित्य में वर्णित है – “ मण् मुंदियो मंगई मुंदियो” अर्थात्, पहले मिट्टी आई या पहले मंदिर की देवी।
तमिल के महान संत कवि ‘माणिक्कवासगर’ की रचनाओं में ईश्वर से प्रार्थना, यहाँ की प्रशंसा, विशेषता और श्रेष्ठता का वर्णन मिलता है। उनका अलग से मंदिर भी देखने को मिलता है। कहा जाता है कि जब उन्होंने पृथ्वी पर वेदों की रक्षा की तब स्वयं शिव ने यहाँ शिवलिंग रूप दे, उन्हें मोक्ष प्रदान किया। मंदिर में एक सबसे विशेष और आकर्षण का केंद्र बनी हुई पन्ना रत्न से बनी लगभग साढ़े पाँच फीट की नटराज मूर्ति है, जिसे ‘मर्गद नटराजर’ नाम से पुकारा जाता है। यह मूर्ति सदैव चंदन के लेप से ढकी रहती है। वर्ष में एक दिन के लिए ही अभिषेक के समय, इसे मूल रूप में देखा जा सकता है।
मंदिर में एक अद्भुत दृश्य और देखने को मिला, वह था ‘स्थल वृक्ष’ जो खोखली अवस्था में था। उसकी शाखाएँ नाग रूप में प्रतीत हो रहीं थीं। एक और आश्चर्य, यहाँ स्थापित शिलालेख द्वारा मिला। जिसके आधार पर माना जाता है कि मंदोदरी और रावण का विवाह इसी स्थान पर हुआ था।
समयाभाव के कारण मंदिर के अंदर अधिक समय तो व्यतीत नहीं कर पाए परंतु इस ‘मेरी अविस्मरणीय यात्रा’ में आज भी उस अविस्मरणीय अनभूति को पा रही हूँ। जब मैं मंदिर की प्रदक्षिणा कर रही थी तब किसी अन्य लोक में भ्रमण कर रही थी; वहाँ न कोई मंदिर था न कोई लोग; न ही मैं थी; थी तो एक ‘चेतनावस्था’ जो अनंत में आनंद का अनुभव कर रही थी…।
लगभग ८ बज चुके थे; हम भी ऑटो से रामनादपुरम लौटने लगे। ऑटो वाला बहुत तेज़ गति से ऑटो चला रहा था। जब हमने थोड़ा धीमा करने के लिए कहा तो वह कहने लगा – “यह रास्ता सुरक्षित नहीं है, बहुत जंगली जानवर घूमते हैं।” और ऑटो के दाएँ-बाएँ ओर के पर्दों को नीचे गिराने के लिए कहने लगा। वह, उस स्थान से अधिक परिचित था इसलिए हम भी शांत बैठ गए। रामनादपुरम कब पहुँच गए, हमें पता ही नहीं चला। वहाँ पहुँचते ही, सबसे पहले हमने रामेश्वरम जाने के लिए बस के बारे में पता किया। बस की प्रतीक्षा करते हुए मैं और मेरे पति ने चाय पी। ठीक पंद्रह मिनट बाद, लगभग ८:४५ बजे बस आ गई। हम अपने जीवन में इस अद्भुत अध्याय को जोड़ते हुए, एक नए अध्याय को पढ़ने की जिज्ञासा लिए अगली यात्रा पर निकल पड़े…

(2021, बैंक ऑफ बड़ौदा द्वारा पुरस्कृत)

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