एकता की प्रतीक – हिंदी
“अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अंजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।” (जयशंकर प्रसाद)
भारत में अंजान क्षितिज को भी सहारा मिल जाता है अर्थात भारत भूमि ने सभी को अपनाया है। कोई भी धर्म हो या कोई भी भाषा, सभी को एक समान भाव से सम्मानित किया है। परंतु राष्ट्र की एकता -अखंडता को बनाए रखने के लिए ‘एक राष्ट्रभाषा’ का होना अत्यंत आवश्यक है।
व्यक्ति को व्यक्ति से, व्यक्ति को राष्ट्र से और राष्ट्र को विश्व से जोड़ने वाली भारत की भाषा ‘हिंदी’ ही है। ‘हिंदी’ मात्र भाषा ही नहीं अपितु हृदय भावो को व्यक्त करने का अत्यंत सरल व सुभग माध्यम है । यह अक्षरों में लिपटी शब्दों में समाहित व्यक्ति के हृदय का सुर है जो अन्य किसी के हृदय को छूकर, उसे अपना बना लेती है ।
हिंदी अपने प्रत्येक वर्ण के साथ प्रकृति से उसी प्रकार जुड़ी है जैसे एक बच्चा अपनी मां से । हिंदी का उच्चारण ही वातावरण को लिप्त और व्यक्ति को मुग्ध कर देता है। यह एक ऐसी भाषा है जो शब्द व अर्थ के साथ स्वयं में भावों को समेटे होती है। यह मात्र ‘मन’ के स्तर को नहीं अपितु मन से गहराई में उतर कर ‘अंतरात्मा’ तक पहुंचती है । अतः हिंदी प्रत्येक व्यक्ति को मंत्रमुग्ध कर अपना बनाने पर विवश कर देती है ।
खड़ी बोली के आदि कवि ‘अमीर खुसरो’ ने लिखा है – “च मन तूतिए –हिंदुम, अर रास्त पुर्सी। जे मन हिदुई पुर्स, ता नाज गोयम।।“
अर्थात, मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ, अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिंदवी में पूछो जिसमें की में कुछ अद्भुत बातें बता संकू।
“वसुधैव कुटुंबकम” की भावना को समाहित किए ‘हिंदी’ भारतीय संस्कृति की संवाहक व राष्ट्रीय एकता की प्रतीक है। देश के अभ्युथान एवं मानव मूल्यों की रक्षा के लिए हिंदी प्रज्वलित हो, संपूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बांधती आई है।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय राष्ट्रीय एकता की भावना को बनाए रखने के लिए सभी के बीच संपर्क भाषा की आवश्यकता थी। हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा थी जो संपूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य कर सकती थी। क्योंकि यह देश में अधिकतम राज्यों में प्रयोग होने वाली व अन्य राज्यों में समझी जाने वाली भाषा थी। अतः तत्कालीन विचारकों, शिक्षाविदों, नेताओं और समाज सुधारको ने हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में योग्य माना। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी, पुरुषोत्तम दास टंडन, डॉ राजेंद्र प्रसाद, काका कालेलकर, राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती आदि महान व्यक्तियों ने मन -वचन और कर्म से हिंदी की सेवा की और राष्ट्र में हिंदी को नई गति, नई चेतना के साथ एक नया जीवन प्रदान किया।
महात्मा गांधी ने सन 1918 में हिंदी राष्ट्रीय सम्मेलन, इंदौर में हिंदी के प्रचार -प्रसार के लिए दक्षिण में हिंदी की आवश्यकता को बताते हुये अपने पुत्र देवदास गांधी को मद्रास भेजा। जहां हिंदी प्रचार का विरोध इस संदेह के आधार पर हुआ कि हिंदी उनकी प्रांतीय भाषाओं का विकास में अवरोधक सिद्ध होगी। इस संदेह का समाधान करने के लिए गांधीजी ने अपने विचारों को प्रकट करते हुए कहा – “कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि हम प्रांतीय भाषाओं को नष्ट करके हिंदी को सारे भारत की एकमात्र भाषा बनाना चाहते हैं। इस गलतफहमी से प्रेरित होकर हमारे प्रचार का विरोध करते हैं। मैं हमेशा से यह मानता रहा हूं कि हम किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं को मिटाना नहीं चाहते। हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिए हम हिंदी भाषा सीखे।“
हिंदी एक ऐसी भाषा है जो अपने उच्चारण में इतनी स्पष्टता रखती है कि कम्प्युटर (संगणक), मोबाइल फोन (चल दूरभाष) आदि इलैक्ट्रोनिक उपकरण भी वाक अभिज्ञान सहज व स्पष्ट रूप से करते हैं। जब एक निर्जीव वस्तु हिंदी भाषा को इतनी सहजता से स्वीकार कर लेती है तो व्यक्ति न करे, ऐसा असंभव है।
अनेक उपेक्षा के बाद अंत में दक्षिण में भी ‘हिंदी’ ने सभी को अपना बना लिया। दक्षिण के चारों राज्य; आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में स्थापित “दक्षिण भारत हिंदी प्रचारक सभा” हिंदी की प्राथमिक एवं उच्च परीक्षाएँ आयोजित कर लाखों की संख्या में छात्र-छात्राओं को हिंदी शिक्षण एवं हजारों की संख्या में प्रमाणित प्रचारकों को तैयार कर न मात्र हिंदी का प्रचार -प्रसार कर रही है, अपितु संपूर्ण राष्ट्र को एक परिवार के रूप में परिलक्षित भी कर रही है। जहां भाषा-भेद का कोई स्वरूप प्रतीत नहीं होता।
सन 1918 में गांधी जी द्वारा स्थापित “दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा” ने अपने 100 वर्ष पूर्ण करने के साथ -साथ दक्षिण में दी गई अपनी हिंदी की सेवाओं द्वारा 11वीं विश्व हिंदी सम्मेलन अगस्त 2018 मॉरीशस में “विश्व हिंदी सम्मान” का गौरव प्राप्त किया।
विश्व कवि रविंद्रनाथ ठाकुर हिंदी के महत्व को बताते हुए कहते हैं – “आधुनिक भारत की संस्कृति एक विकसित शतदल के समान है। जिसका एक -एक दल एक प्रांतीय भाषा और उसका साहित्य संस्कृति है। किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा नष्ट हो जाएगी। हम चाहते हैं कि भारत की सब प्रांतीय बोलियां जिसमें सुंदर साहित्य की सृष्टि हुई है, अपने-अपने घर में रानी बन कर रहें।……… आधुनिक भाषाओं के हार के मध्य मणि ‘हिंदी’ एक भारत होकर विराजती रहे।”
भारतीय साहित्य ने राष्ट्रीय एकता की भावना को बनाए रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण योगदान दिया है। संत रामानंद, संत वल्लभाचार्य, संत मध्वाचार्य, संत चैतन्य महाप्रभु जैसे लोकनायक और कवि के साथ जायसी, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई जैसे कवियों के कारण भारतीय साहित्य ने सच्चे अर्थों में लोगों में जागरूकता एवं एकत्व की भावना का संचार किया है । महाकवि तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ विश्व काव्य राम का चरित्र उत्तम पुरुष आदर्श जीवन का आधार बन गई है । इस भटकती मानवीय संस्कृति के काल में ‘रामचरितमानस’ एक विश्व संस्कृति की नई रचना करने में सार्थक सिद्ध हो रही है। वहीं कबीर की वाणी समाज में फैले पाखंड, जाति-पाँति, ऊंच-नीच, भेद-भाव, अंधविश्वास और आडंबर जैसे विषैले प्रभाव से मुक्त कर रही है ।
भारतीय भिन्न-भिन्न भाषाओं में लिखे गए साहित्य का अन्य भाषाओं में अनुवाद, एक -दूसरे की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि स्थितियों को परिचित कराते हुए आपसी संबंध स्थापित करता है। आज हिंदी साहित्य का अन्य भाषाओं में अनुवाद व अन्य भाषाओं का हिंदी में अनुवाद नई ऊर्जा, नए ज्ञान भंडार के साथ नवभारत का निर्माण कर रहा है। विवेकानंद, भारतेंदु हरिश्चंद्र, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुब्रमण्यम भारती आदि अनेक लेखकों व कवियों ने हिंदी को विश्व स्तर पर ले जाने में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित किया है।
कवि डॉ॰ रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है – “अमीर खुसरो और कबीर, जायसी और उसमान, रहीम और रसखान, अनीस अहमद और कमाल, ताज और तानसेन, नेवाज और फखरुद्दीन, आलम और शेख तथा मुबारक और रसलीन ये सब मुसलमान थे और इनमें अधिकांश तो हिंदी के अत्यंत उच्च कोटि के कवि हुए हैं। हिंदी की परंपरा सांप्रदायिकता की परंपरा नहीं एकता उदारता सामाजिक समानता और व्यक्तिगत स्वातंत्र्य की परंपरा है।“
हिंदी भाषा अपनी शब्द ध्वनि के अनुसार ही लिखी और व्यक्त की जाती है । अत्यंत सरल एवं सहज रुप के साथ यह किसी भी व्यक्ति की अपनी हो जाती है और यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है । यह एक संगीत की भाँति है जिसके सुर भाषा, जाति, धर्म, देश आदि का ज्ञान नहीं रखते, जब यह बिखरते हैं तो अपने चारों ओर फैले हुए वातावरण को स्वयं में समाहित कर लेते हैं। एकता की प्रतीक ‘हिंदी’ आज न मात्र भारत की अपितु सम्पूर्ण विश्व के सुरों का साज़ बन चहुंओर अलंकृत हो रही है।