लेख

महान संत-कवयित्री लल्लेश्वरी

कश्मीर की महान संत कवयित्री लल्लेश्वरी का जन्म सन् 1320-1392 माना जाता है। वे ललद्यद, लल, लल्ला, ललदेवी, लैला आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। कश्मीरी साहित्य में इनकी रचनाएँ महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और उन्हें ‘लाल वाक्य’ के नाम से भी जाना जाता है।


12 वर्ष की आयु में बाल विवाह और ससुराल से मिली यातनाएँ, दुर्व्यवहार ने, उन्हें घर त्यागने पर विवश कर दिया। वे इस सांसारिक मोह का त्याग कर, ईश्वर मार्ग पर चल पड़ीं। मीरा की भाँति लोक-लाज को छोड़, योग-ध्यान और भक्ति में ऐसी लीन हुईं कि हर संप्रदाय-धर्म का व्यक्ति उन्हें पूजने लगा। जहाँ हिंदू उन्हें लल्लेश्वरी कहकर आदर करते, वहीं मुस्लिम ललारिफा नाम से पूजने लगे।


कश्मीरी साहित्य में उल्लेख मिलता है कि जब प्रमुख कश्मीरी सूफी संत शेखनूरउद्दीन वली (नंदा ऋषि) का जन्म हुआ, उन्होंने तीन दिन तक अपनी माँ का स्तनपान नहीं किया, तभी लला ने उन्हें अपना स्तनपान कराया और जब से वे संत शेखनूर की माँ कहलाने लगीं। लला ने जहाँ स्वयं के व्यक्तित्व द्वारा धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था में संतुलन बनाए रखने हेतु अविस्मरणीय योगदान दिया, वहीं उनकी रचनाएँ आज भी समाज का मार्गदर्शन कर रहीं हैं।


लल की काव्य-शैली को ‘वाख’ कहा जाता है। वाखो में ईश्वर प्राप्ति, बाह्याडंबर, जाति-पाँति का विरोध, आदि का उल्लेख मिलता है। वे कहती हैं – ‘भवसागर से पार जाने के लिए सत्कर्म ही सहायक होते हैं।’ मीरा कांत द्वारा अनुदित रचना, जो दिखाती है कि अहंकार का त्याग और समत्व भाव ही मोक्ष द्वार है – “खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं, न खाकर बनेगा अहंकारी। सम खा तभी होगा समभावी, खुलेगी साँकल बंद द्वार की।”


आज भी कश्मीर के लगभग हर घर में लल्लेश्वरी का उदाहरण देकर, अपनी बेटी की प्रशंसा करते हैं। लल्लेश्वरी का समत्व भाव आज भी लोगों को प्रेरित कर रहा है, वे कहती हैं – ‘प्रशंसा या निंदा का हमें बिल्कुल ख्याल नहीं करना चाहिए क्योंकि यह दोनों एक-दूसरे को संतुलित करती रहती हैं, इसीलिए हमें सबको समान दृष्टि से देखना चाहिए और समान भाव से ग्रहण करना चाहिए।’

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