लेख

गुरु गोरखनाथ और हिंदी

नाथ पंथ के प्रवर्तक एवं हठयोग के उपदेशक, महायोगी, गुरु गोरखनाथ का अवतरण एक ऐसे काल में हुआ जब सामाजिक व्यवस्था डगमगाने लगी थी, यहाँ तक कि भारतीय संस्कृति के विनाशक लक्षण प्रत्यक्ष होने लगे थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें अपने युग के सबसे महान धर्म नेता का स्थान दिया है, वे कहते हैं – “शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित महापुरुष भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ।” विभिन्न मतानुसार गुरु गोरखनाथ का आविर्भाव सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक माना गया है, वहीं डॉ पीतांबर बड़थ्वाल ने संवत १०५० के आसपास माना है। उनका कहना है – “निर्गुण शाखा वास्तव में योग का ही परिवर्तित रूप है। भक्ति धारा का जल पहले योग के घाट पर बहा था।”
महर्षि पतंजलि ने जहाँ हमें योग दिया, वहीं परम सत्य को पाने हेतु गुरु गोरखनाथ ने स्वयं के अंदर खोज के लिए साधना की अनेक विधियों का आविष्कार किया।
रांघेय राघव दु:ख प्रकट हुए कहते हैं – “जिसने समस्त निर्गुण संप्रदाय पर इतना सशक्त प्रभाव डाला, जो हिंदी साहित्य के आदिकाल का एक सशक्त भाषा प्रचारक था, वह बुद्धिवादी वर्ग में प्रायः नहीं के समान ज्ञात है।” उन्होंने गोरखनाथ की रचना ‘रोमावली’ को जहाँ हिंदी में मुक्त छंद का पहला प्रयोग माना है, वहीं डॉ. कमल सिंह ने अपने शोधानुसार महायोगी गोरखनाथ को हिंदी का प्रथम कवि माना है।
महान कवि, संत कबीर दास पर, महायोगी गुरु गोरखनाथ का ही प्रभाव है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उनकी रचनाओं द्वारा देखा जा सकता है –
गगन मंडल मैं ऊंधा कूबा तहां अंमृत का बासा।
सगुरा होइ सु भरि भरि पीवै निगुरा जाई पियासा।। ‘गोरखबानी’ २३

गगन मंडल के बीच में, तहवाँ छलकै नूर।
निगुरा महल न पावई, पहुँचेंगे गुरु पूर।। ‘कबीर,ह.प्र.दि.’, पृ.१६७

पढ़ि पढ़ि पढ़ि केता मुवा, कथि कथि कथि कहा कीन्ह।
बढ़ि बढ़ि बढ़ि बहु घट गया, पारब्रह्म नहीं चीन्ह।।’गोरखबानी’ २४८
कबीर दास –
‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय।’
डॉ.उदय प्रताप सिंह जी के शब्दों में – “इस तथ्य को नई पीढ़ी तक पहुँचाना बहुत आवश्यक है कि हिंदी की शुरुआत गोरखनाथ ने ही किया था साथ ही यह संदेश भी देना है कि गोरखनाथ की ‘बानी’ के बिना हिंदी भाषा एवं साहित्य का इतिहास अधूरा होगा।”
अंततः, गुरु गोरखनाथ एक ऐसे महान व्यक्तित्व के रूप में सामने आए जिनके अनुयायी संपूर्ण भारतवर्ष में और उनकी कहानियाँ, भारत की प्रत्येक भाषा में मिलतीं हैं। वे भक्तिकाल के मौलिक आधार बने, जिनके बिना कबीर, मीरा, नानक, दादू, वाजिद और फरीद जैसे संतों एवं लोकोपदेशकों का आविर्भाव दुर्लभ था।

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