संत कवयित्री सहजोबाई
हिंदी साहित्य के भक्ति काल में यदि किसी संत कवयित्री की बात की जाए तो तुरंत ही मीराबाई का नाम जिह्वा पर होता है, परंतु यह भी विचारणीय है कि उनके अलावा किसी अन्य महिला संत का आविर्भाव नहीं हुआ। भक्त मीराबाई के समान चारों और भक्ति की सुगंध फैलाने वाली 18वीं सदी की सहजोबाई भी अविस्मरणीय स्थान रखती हैं।
सहजोबाई का जन्म 25 जुलाई, सन् 1725 दिल्ली माना जाता है, वहीं, कहीं-कहीं 15 जुलाई, सन् 1724 का भी उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि राजस्थान में उनका जन्म हुआ और बाद में, वे सपरिवार दिल्ली आ गईं। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। शादी के समय एक ऐसी घटना हुई जिसने सहजोबाई के जीवन को पूर्णरूपेण बदल दिया। उस समय के महान संत गुरुचरणदास जी ने सहजोबाई को दुल्हन रूप में अलंकृत देख कहा –
“सहजो तनिक सुहाग पर, कहा गुदाये सीस।
मरना है, रहना नहीं, जाना विश्वे बीस।।”
वे उस समय गुरु वचन नहीं समझ पाईं, परंतु कुछ ही समय बाद सूचना आई कि आतिशबाजी के कारण दूल्हे का घोड़ा विदक गया और नीचे गिरकर दूल्हे की मृत्यु हो गई। बस वही समय था जहाँ से सहजो का सांसारिक मोह समाप्त हो गया और स्वयं को, उन्होंने ईश्वर को समर्पित कर पूरा जीवन ईश्वर साधना-भक्ति में लगा दिया। संत कबीर की भाँति उन्होंने गुरु भक्ति को ईश्वर से श्रेष्ठ बताया –
“राम तजूं पै गुरु न विसारूं, गुरु के सम हरि को न निहारूं।
हरि ने जन्म दिया जग माहीं, गुरु ने आवा गमन छुड़ाई।।”
सहजोबाई की गुरु-भक्ति के बारे में उनके गुरू भाई जगजोत सिंह ने लिखा है –
“चरणदास की शिष्य दृढ़, सहजोबाई जान।
ताकी दृढ़ गुरुभक्ति पर , जोगजीत कुर्बान।।”
उनका एकमात्र ग्रंथ ‘सहज प्रकाश’ मिलता है। इसमें गुरु महिमा, शिष्य-लक्षण साधु-लक्षण, पूर्व जन्म, जन्म-मृत्यु, सामाजिक जीवन, मोक्ष, सोलह तिथि, सात वार वर्णन आदि से संबंधित विषय मिलते हैं। स्पष्ट और विशिष्ट शैली के साथ उन्होंने दोहा, चौपाई, सोरठा, कुंडलियां, पद आदि रूपों में रचनाएँ की है। रचनाओं में कृष्णलीला-विलास वर्णन के भिन्न-भिन्न रागों पर आधारित 39 पद भी प्राप्त होते हैं। उनकी रचनाओं में भगवान कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति देखने को मिलती है – “मेरे एक श्री गोपाल और नाहिं कोई। आय बसे हिये माहि और दूजो कोई ध्यान नाहिं।।” उनकी रचनाओं में खड़ी बोली के साथ-साथ ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, अरबी-फ़ारसी शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। संत सहजोबाई संसार में रहकर भी बंधन मुक्त हो, समाज को मानव जीवन के प्रति जागरूक करने के साथ जीवन की सत्यता से परिचित कराती रहीं। उन्होंने सगुण-निर्गुण दोनों मार्गों को समान बताया –
“निर्गुण सर्गुण एक प्रभु, देखा समझ विचार।
सत गुरु ने आँखें दई, निश्चय किया निहार।।”
सत्संगति की महत्ता बताते हुए वे कहती हैं –
“जो आवे सत्संग में, जात वर्ण कुलखोय।
सहजो मैल कुचील जल, मिले सु गंगा होय।।”
अर्थात्, जैसे मैला गंदा पानी गंगा में मिल जाने पर उसी के समान पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार संत-सज्जनों की संगति से कौआ अर्थात् मूर्ख व्यक्ति भी, हंस यर्थात् ज्ञानी-विवेकी बन जाता है।
24 जनवरी, सन् 1805 में, सहजोबाई सदा के लिए ब्रह्मलीन हो गईं, परंतु अपनी रचनाओं के द्वारा आज भी वे समाज का मार्गदर्शन कर रही हैं।
संदर्भ –
* सहज प्रकाश, सम्पादक : महन्त घनश्याम दास, 2000
* चरणदासी संप्रदाय और उसका साहित्य, डा. श्यामसुंदर शुक्ल, कला प्रकाशन, 1996
प्रस्तुत लेख का कुछ अंश 21 दिसंबर, 2021 राजस्थान पत्रिका, चेन्नई में प्रकाशित।