युगदृष्टा स्वामी विवेकानंद
“जिस चरित्र में ज्ञान, भक्ति और योग – इन तीनों का सुंदर सम्मिश्रण है, वही सर्वोत्तम कोटि का है। एक पक्षी के उड़ने के लिए तीन अंगों की आवश्यकता होती है – दो पंख और पतवारस्वरूप एक पूँछ। ज्ञान एवं भक्ति मानो तो पंख है और योग पूँछ, जो सामंजस्य बनाए रखता है।” ऐसे दार्शनिक, विचारक, लेखक, वक्ता, देशभक्त, भक्त, मानव व प्रकृति प्रेमी युगदृष्टा स्वामी विवेकानंद, जिन्होंने मात्र 25 वर्ष की आयु में गृह त्याग दिया। वे सत्य की खोज में तब तक प्रयासरत रहे, जब तक उसे पा नहीं लिया।
मात्र 30 वर्ष की आयु में शिकागो सम्मेलन में भारत देश की संस्कृति, सभ्यता अध्यात्म, धर्म को सम्मान दिलाया, विश्व स्तर पर देश के गौरव का परचम लहराया। ऐसी घड़ी, जब देश, पाश्चात्य देशों की शक्ति, ऐश्वर्य संपन्नता को देखकर आकर्षित हो रहा था और उसका अनुकरण-अनुसरण कर रहा था, तभी अपनी संस्कृति की रक्षा, उसके प्रति आकर्षण, विश्वास और आत्मविश्वास जगाया। वे ऐसा इसलिए कर पाए, क्योंकि वे कहते हैं – “विचार बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि जो कुछ हम सोचते हैं, वही हम हो जाते हैं।”
महासमाधि से पूर्व जब गुरु स्वामी रामकृष्णपरमहंस ने उनसे पूछा “नरेन क्या चाहता है?” नरेंद्र बोले “शुकदेव की तरह निर्विकल्प समाधि द्वारा सदैव सच्चिदानंद सागर में डूबे रहना चाहता हूँ।” स्वामी रामकृष्ण बोले – “बार-बार यही बात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती। समय आने पर कहाँ तू वटवृक्ष की तरह बढ़कर सैकड़ों लोगों को शांति की छाया देगा और कहाँ आज अपनी ही मुक्ति के लिए व्यग्र है। इतना क्षुद्र आदर्श है तेरा?”
सन् 1893, अमेरिका जाने से पूर्व ही नरेन्द्र , ‘स्वामी विवेकानंद’ बने। इससे पूर्व, वे स्वयं को ‘विविदिषानंद’ व ‘सच्चिदानंद’ नाम से गोपनीय रखते थे। अपने गुरुवचनों के अनुसार, समय आने पर उन्होंने वटवृक्ष की तरह बढ़कर ही सैकड़ों लोगों को शांति की छाया दी, देश को पहचान दी। उनकी वट वृक्ष बनने तक की यात्रा बहुत ही संघर्षमय रही। जुलाई, 1890 में अपने गुरु रामकृष्ण के भक्तों के साथ माता शारदा देवी के चरण स्पर्श कर प्रार्थना की “माँ जब तक मैं गुरु के बताए कार्य को संपन्न नहीं करूंगा, तब तक नहीं लौटूंगा। आप आशीर्वाद दें कि मेरा संकल्प सिद्ध हो।“
वे अपने गुरु भाइयों के साथ लक्ष्य प्राप्ति की ओर निकल पड़े, लेकिन उन्हें बाद में आभास हुआ कि वे अपने गुरु भाइयों के प्रति मोह बंधन मे फँस रहे हैं और बंधन कर्म पथ में बाधक होते हैं, इसलिए उन्होंने अपने गुरु भाइयों से कहा कि मैं आगे अकेले यात्रा करना चाहता हूँ, आप मेरे पीछे न आएँ। आप भी अपने विवेकानुसार लक्ष्य प्राप्ति के लिए आगे बढ़ें।
स्वामी विवेकानंद “धम्मपद” की पंक्तियों को दोहराते हुए अकेले ही गाते हुए आगे बढ़ते हैं –
“बिना किसी भय के
सबकुछ से उदासीन
बिना किसी निर्दिष्ट पथ के
बेपरवाह बढ़े चलो।
गैंडे की भाँति एकाकी विचरण करो।
जैसे सिंह किसी आवाज से भीत नहीं होता,
जैसे वायु जाल में नहीं फँसती,
जैसे कमल-पत्र जल से अछूता रह जाता है,
वैसे ही तुम भी
गैंडे की भाँति विचरण करो।”
गुरु के द्वारा प्रज्वलित ज्ञानज्योति ने उन्हें इस प्रकार प्रकाशमान किया कि मात्र 39 वर्ष की आयु में वे ऐसा काम कर गए, जिसका भारत सदैव श्रेणी रहेगा और सदियों तक प्रत्येक भारतीय को प्रेरित करता रहेगा। उनकी प्रखर बुद्धि व ज्ञान ने संपूर्ण विश्व में युवा शक्ति का एक ऐसा दिव्य प्रकाश फैलाया, जो आज तक भारत माँ के मस्तक पर मुकुट में जड़े हीरों की चमक के समान आकर्षित कर रहा है। वे सदा से युवाओं को उनके अंदर संचित अद्वितीय दिव्य असीमित शक्ति व ज्ञान प्राप्त करने का मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। वे कहते हैं कि कुछ भी असंभव नहीं; उत्साह, दृढ़ संकल्प, लक्ष्य प्राप्ति हेतु परिश्रम व निरंतर प्रयास एवं योग-ध्यान को अपनाकर, संस्कृति से जुड़े रहते हुए स्वयं के जीवन को समाज और राष्ट्र हित में अग्रसर रखना है।
***“यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सबकुछ सकारात्मक ही पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।” गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर***
3 Comments
Shiv shankar sharma
अति सुंदर एवं प्रेरणादायक
poojaparashar
धन्यवाद
Abhishek Sharma
“एक पक्षी के उड़ने के लिए तीन अंगों की आवश्यकता होती है,”
जैसे प्रायोगिक उदहारण को लेते हुए, आपके द्वारा स्वामी जी पर लिखा हुआ लेख बहुत ही सुन्दर है.