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    “गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ”

    ‘गुरु’ अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। गुरु का अर्थ या उसकी परिभाषा शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। किसी वस्तु या व्यक्ति का वर्णन किया जा सकता है परंतु गुरु का कितना भी वर्णन किया जाए, उसके वास्तविक स्वरूप और गुणों का वर्णन नहीं किया जा सकता। गुरु अनिर्वचनीय है, अवर्णनीय है, इसलिए संत कबीर दास जी भी कहते हैं –“सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब बनराय।सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।।”गुरु न सुनने के लिए है, न समझने के लिए। गुरु न पढ़ने के लिए है, न मानने के लिए। यह सब मन को समझाने और उसे संतुष्ट करने के उपाय…