“गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ”
‘गुरु’ अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। गुरु का अर्थ या उसकी परिभाषा शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। किसी वस्तु या व्यक्ति का वर्णन किया जा सकता है परंतु गुरु का कितना भी वर्णन किया जाए, उसके वास्तविक स्वरूप और गुणों का वर्णन नहीं किया जा सकता। गुरु अनिर्वचनीय है, अवर्णनीय है, इसलिए संत कबीर दास जी भी कहते हैं –
“सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।।”
गुरु न सुनने के लिए है, न समझने के लिए। गुरु न पढ़ने के लिए है, न मानने के लिए। यह सब मन को समझाने और उसे संतुष्ट करने के उपाय मात्र हैं। इस प्रकार गुरु की सत्यता को कभी भी नहीं पाया जा सकता। गुरु को तभी जाना जा सकता है जब आप अपने अस्तित्व को खो देते हैं; जब आप गुरु से एक हो जाते हैं; यदि कोई रह जाता है तो वह है ‘गुरु”! फिर आप कहीं नहीं रहते; सोचने एवं समझने के लिए कुछ नहीं रहता; सब मिट जाता है या यह कहिए कि सब मिल जाता है।
गुरु मिलने और ईश्वर मिलने में कोई भेद नहीं है। जब गुरु से असली साक्षात् होता है तो ईश्वर से भी साक्षात् हो जाता है। कबीर जी कहते हैं –
“गुरु गोविंद तो एक है, दूजा सब आकार।
आपा मिटै हरि भजै, तब पावै दीदार।।”
यही साक्षात्कार स्वयं सहजोबाई ने पा लिया, इसलिए वे कहती हैं –
“फिर हरिबंधमुक्ति’ गति लाये । गुरु ने सबही भर्म मिटाये ॥
चरनदास पर तन मन वारूँ । गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ।।”
गुरु मिलने के बाद शिष्य को कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं; मात्र स्वयं को गुरु को सौंप देना चाहिए; ठीक वैसे ही जैसे माटी स्वयं को कुम्हार को सौंपकर भूल जाती है कि मेरा क्या होगा? कुम्हार मेरे साथ क्या करेगा? सहजोबाई कहती हैं –
“सहजो शिष्य ऐसा भला, जैसे माटी मोय।
आपा सौंप कुम्हार को, जो कछु हुए सो होय।।”
‘संसार’ शब्दों के सागर में डूबा रहता है, जो एक छाया है माया की। व्यक्ति उसे पकड़ने का प्रयास करता रहता है और जीवन भर उसी के पीछे भागता रहता है, परंतु मिलता क्या है! ‘सत्य’ शब्द से परे है। गुरु इस संसार रूपी सागर में छिपा अमृत का वह प्याला है जिसकी एक बूंद को भी चख लिया तो ये सारा संसार ही अमृतमय हो जाता है। वे सारे बंधन टूट जाते हैं जिनमें जन्मों-जन्मों से जकड़े हुए थे। गुरु ही मुक्ति है; गुरु ही आनंद है और गुरु ही परमानंद है। स्वयं गुरु गोरखनाथ कहते हैं –
“श्रीगुरं परमानन्दं वन्दे स्वानन्दविग्रहम् ।
अन्य सानिद्धयमात्रेण चिदानन्दायते।।”
मैं, श्री गुरु को नमन करता हूँ, वे परमानन्द के मूर्त रूप हैं और उनके सानिध्य मात्र से ही ये शरीर चिदानन्द से पूरित हो जाता है।
ॐ श्री गुरवे नमः।।
गुरु पूर्णिमा, ३ जुलाई २०२३