बंता सिंह
कुछ लोग अपने लिए जीते हैं और चले जाते हैं
कुछ परिवार के लिए जीते हैं और उनकी यादों में रह जाते हैं
कुछ ऐसे भी होते हैं जो वतन के लिए जीते हैं और सदा के लिए हर दिल में बस जाते हैं।
ऐसे ही वतन के लिए जीने वाले थे बंता सिंह। बंता सिंह का जन्म 1890 पंजाब के जालंधर जिले के संघवाल नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता नाम बूटा सिंह और माता का नाम गुजरी था। बूटा सिंह बड़े ही धार्मिक, साहसी व्यक्ति होने के साथ-साथ एक किसान व अच्छे उद्यमी भी थे। बंता सिंह बचपन से ही पढ़ने में बहुत होशियार थे। प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण होने के बाद, वे जालंधर चले गए। वहाँ उन्होंने डी.ए.वी. कॉलेज में नाम लिखाया।
जब वह दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे तभी कांगड़ा जिले में एक बहुत बड़ा भूकंप आया, जहाँ हजारों लोग बेसहारा और बेघर हो गए। बंता सिंह के लिए यह घटना असहनीय थी, अतः वह पढ़ना-लिखना छोड़कर भूकंप पीड़ितों की सेवा में लग गए, अपने घर से अनाज की बोरियाँ भूकंप पीड़ितों के लिए ले जाया करते थे। उनकी सहायता हेतु, उन्होंने एक दल तैयार किया था जिसके अध्यक्ष वह स्वयं थे। जिस प्रकार उन्होंने भूकंप पीड़ितों की सेवा की, उनका नाम चारों तरफ गूँजने लगा और उनका सम्मान होने लगा।
हाई स्कूल करने के बाद वे चीन गए, जहाँ उनका मन नहीं लगा। फिर वह अमेरिका गए। वहाँ, उन्होंने देखा कि अमेरिकी सरकार का व्यवहार भारतीयों के प्रति अच्छा नहीं है। वह यह दशा देखकर बहुत परेशान रहते थे। उन्होंने अनुभव किया कि भारतीयों की इस दुर्दशा का कारण भारत की परतंत्रता ही है। अतः उन्होंने वहीं अपने मन में प्रतिज्ञा की कि वे जब तक जीवित रहेंगे स्वतंत्र होकर, नहीं तो मृत्यु की गोद में सो जाएँगे।
इसके बाद वह भारत लौट आए। उन्होंने गाँव में विद्यालय और पंचायत की स्थापना की। पहले गाँव के झगड़ों का फैसला अदालत में जाता था, अब गाँव के सभी झगड़ों का फैसला पंचायत के द्वारा होने लगा। उनके हर फैसले को दोनों पक्ष आदर पूर्वक स्वीकार करते थे। गाँव में उन्होंने पशुओं के लिए अस्पताल और विद्यालय में पुस्तकालय भी खोला। पुस्तकों के छपने के लिए प्रिंटिंग प्रेस भी लगाई। धीरे-धीरे उनका नाम चारों ओर फैलने लगा। लोग उन्हें अपना नेता मानने लगे।
पंजाब के बहुत से लोग अमेरिका में रहते थे, जब वे घर आते थे तो बन्ता सिंह से भी मिलने अवश्य आते थे। अंग्रेज़ी अधिकारियों ने इसका अर्थ यह लगाया कि अवश्य ही कोई संस्था है जो अंग्रेज़ी सरकार को पलटना चाहती है। उसी संस्था के लोग बन्ता के पास मिलने आते हैं; अवश्य ही बन्ता अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध कोई योजना बना रहा है। परंतु यह सोच बिल्कुल सही थी। बन्ता गदरपार्टी और क्रांतिकारियों से गहरा संबंध रखते थे। जनता में क्रांति का बीज बोने के लिए ही उन्होंने विद्यालय और पंचायत की स्थापना की थी। वह लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा कर रहे थे। उन्होंने गुप्त रूप से विद्रोह की अग्नि जला दी थी। उनसे प्रभावित होकर गाँव के रुड़ सिंह भी सबसे आगे आकर उनके साथ चल पड़े। गदर पार्टी के प्रधान बाबा सोहन सिंह भकना ने ‘मेरी राम कहानी’ पुस्तक में लिखा है – “हमारी सभी विपत्तियों की जड़ हमारी गुलामी है। इसे खत्म करने के लिए हमें शूरवीरों की जरूरत है तो अपने नाम प्रस्तुत करने वाले देशभक्तों में सबसे पहला नाम भाई बंता सिंह का था।”
अंग्रेज़ों के गुप्तचर उनके आगे-पीछे घूमते रहते थे लेकिन वे सदैव सतर्क रहते। अंग्रेज़ी अधिकारियों की चिंता बढ़ती जा रही थी। वे उन्हें अपने मार्ग की वाधा समझने लगे थे। वे बंता को बदनाम करने और फँसाने के षड्यंत्र करने लगे। एक दिन बन्ता जब घर पर नहीं थे तब पुलिस ने उनके घर पर धावा बोल दिया, तलाशी में पत्र, अखबार, पुस्तकें सभी उठा ले गई। कागज-पत्रों से कुछ ऐसे सूत्र मिले कि उनका संदेह सच में बदल गया। बंता सिंह की गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया गया परंतु बन्ता कभी पुलिस के हाथ नहीं लगे।
एक बार वह गाँव में भाषण देने जा रहे थे कि पुलिस इंस्पेक्टर से उनकी भेंट हो गई। बंता ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया लेकिन इंस्पेक्टर नहीं माना। बंता को अपनी पिस्तौल निकालनी पड़ी और इंस्पेक्टर पर गोलियाँ चला दी। बंता भाग निकले और मियाँमीर स्टेशन पर जा पहुँचे। वहाँ भी पुलिस मौजूद थी। जब वे रेलगाड़ी के डिब्बे में चढ़े तो वहाँ भी पुलिस थी। जैसे ही गाड़ी चली वे डिब्बे से कूद गए। उसके बाद वह जालंधर पहुँचे लेकिन कभी भी पुलिस के हाथ नहीं लगे।
उन्हीं दिनों होशियारपुर के चंदा सिंह ने गदर पार्टी के कार्यकर्ता प्यारा सिंह को धोखा देकर पकड़वा दिया। बंता को जब यह मालूम हुआ तो उनका खून खोला और उसका काम तमाम करने की प्रतिज्ञा की। 25 अप्रैल 1915 को चंदा सिंह को उसके ही घर में मृत्यु के घाट उतार दिया।
26 अप्रैल 1915 को 82 क्रांतिकारियों का केस दर्ज हुआ, परंतु बन्ता फरार थे। उन्होंने अमृतसर के पास एक पुल को डायनामाइट से उड़ा कर सरकार के रातों की नींद उड़ा दी। अंग्रेज बहुत भयभीत हो गए थे, उनको बंदी बनाने का प्रयास तेजी से बढ़ता गया। जब भी बन्ता और अंग्रेजों का आमना-सामना होता, गोलियों की बौछारें होतीं और बंता सिंह अंग्रेजों पर गोलियाँ चलाते हुए निकल जाया करते।
एक बार 50 – 60 घुड़सवारों ने 60 मील तक उनका पीछा किया, फिर भी वे हाथ न आए।
निरंतर बढ़ते संघर्ष के कारण वे अस्वस्थ रहने लगे, जिसके कारण वह अपने घर चले आए। एक निकट के संबंधी ने उनकी सूचना पुलिस को दे दी। उन्हें चारों तरफ से घेर लिया गया। इस्पेक्टर हथकड़ी लेकर सामने आ पहुँचा। वे समझ गए यह सब कैसे हुआ! उन्होंने अपने संबंधी की ओर देखते हुए कहा – “तुमने मेरे साथ विश्वासघात क्यों किया? यदि तुम्हें पुलिस को सूचना देनी ही थी तो मेरी पिस्तौल मुझसे लेकर छुपा क्यों दी? पिस्तौल न सही, एक लाठी ही मेरे पास रख देते! फिर मैं देखता कि पुलिस मुझे कैसे बंदी बनाती?”
यह सुनकर इंस्पेक्टर बोल उठा – ‘आप अपने आप को वीर और दूसरों को कायर समझते हैं?’ बंता सिंह ने उत्तर दिया – ‘कौन वीर है, कौन कायर है, इसका पता तो तब चल सकता है जब मेरे हाथ में पिस्तौल दे दें।’ पर इंस्पेक्टर भला पिस्तौल क्यों देता!
25 जून 1915 को उनको बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया गया। बंता सिंह को होशियारपुर के डिप्टी कमिश्नर की अदालत में पेश किया गया। अदालत के चारों ओर भीड़ एकत्रित हो गई। बंता ने दर्शकों को संबोधित करते हुए कहा – “भाइयों आप अधीर ना हों। वह दिन शीघ्र ही आने वाला है जब भारत स्वतंत्र होगा।”
बंता को होशियारपुर से लाहौर ले जाया गया। लाहौर के सेशन जज के न्यायालय में मुकदमा चला। जज अंग्रेज था और उसने मृत्युदंड की सजा सुनाई। मृत्युदंड सुनकर बंता उछल पड़े और जज को धन्यवाद देते हुए कहा – “आपने मुझे मृत्युदंड देकर, मुझ पर बड़ा उपकार किया है। मैं अपने शरीर को मातामही के चरणों पर चढ़ाकर अपने जीवन को सार्थक करूँगा। यह अवसर मनुष्य को पुण्यों के पश्चात प्राप्त होता है।”
जिस समय उनके मुख से ये शब्द निकल रहे थे, मुखमंडल पर एक अपूर्व ज्योति झलक रही थी ।
12 अगस्त 1915 को लाहौर की जेल में जब उन्हें फाँसी दी गई तब वे मात्र 25 वर्ष के थे। वे बहुत खुश थे कि अपनी माता की गोद में सदा के लिए सोने जा रहे हैं और इसी खुशी में सजा सुनने से लेकर फाँसी होने तक, उनका वजन 5 किलो बढ़ गया था।
1992 में पठानकोट बायपास चौक का नाम शहीद बंता सिंह संघवाल चौक रखा गया और 1994 में वहाँ उनकी मूर्ति भी लगाई गयी। गाँव संघवाल में शहीद बंता सिंह स्टेडियम बनाया गया, जहाँ हर वर्ष उनकी याद में मैराथन रेस और टूर्नामेंट करवाए जाते हैं।
आज हर भारतवासी भले ही उन्हें न जानता हो परंतु संघवाल, उन्हें प्रतिक्षण अपने हृदय में बसाकर जीता है।
भारत माता के वीर सपूत बंता सिंह को मेरा शत् शत् नमन।