• मेरा दिव्य संसार

    कहाँ था तुम्हारा यह प्रेम?

    हे कृष्णा! कैसे तुम चुप रह सकते हो? क्या इन आँसुओं से तुम्हारा हृदय नहीं पिघलता? कैसे देखकर भी, अनदेखा करते हो? तड़पता छोड़कर अचानक चले जाते हो, कभी हाल-चाल पूछने भी नहीं आते! हाँ, तुम तो त्रिकालदर्शी हो!! सब कुछ तमाशे की तरह देखते रहते हो!!! एक बात बताओ, उद्धव को उसके अहंकार को तोड़ने के लिए यहाँ भेजा या हमारा मन बदलने के लिए! कहीं ऐसा तो नहीं, हमारा प्रेम जाँचने के लिए!! हमारा तो एक ही हृदय है जिसमें सदा तुम ही बसते हो तो बदलता कैसे!!! परंतु, लगता है तुम्हारा ह्रदय अवश्य पत्थर का हो गया है! क्या होता, अंत में अपनी बाँसुरी फेंक दिखाते हो…