
गगन मंडल
“गगन मंडल में ऊंधा कूबा, तहां अमृत का बासा। सगुरा होई सु भरि भरि पीवै, निगुरा जाइ पियासा॥” गुरु गोरखनाथ कहते हैं कि जिसके पास गुरु है, वह गगन मंडल में औंधे मुँह कुएँ में भरे ज्ञान रूपी अमृत को भर-भर कर पीता है और जिसके पास गुरु नहीं है, वह उस अमृत को चखे बिना ही मर जाता है।
गगन मंडल है क्या! इसका वास्तविक अर्थ क्या है! संत-महात्माओं की वाणी में सदैव इसे पाया गया है। भक्ति काल की रचनाओं में भी गगन मंडल का उल्लेख है –
“अवधूत गगन मंडल घर कीजै”(कबीर), “गगन मंडल पर सेज पिया की, किस बिध मिलना होय”, “गगन मंडल म्हारो सासरो…”(मीराबाई), “गगन मण्डल में अली झरत है, उनमुन के घर बासा” (रैदास), “गगन मंडल महि लसकरु करै” (गुरु ग्रंथ साहिब) आदि।
सामान्यतः गगन मंडल, ब्रह्मांड में व्याप्त ग्रह-नक्षत्रों का समूह है। इसी प्रकार इस शरीर रूपी ब्रह्मांड में भी एक गगन मंडल व्याप्त है जो शिखा या सिर के ऊपरी मध्य भाग में स्थित है। इसे ब्रह्मरंद्र, सहस्रार, आकाश मंडल या शून्य मंडल भी कहा जाता है। यह वह स्थान है जहाँ मनुष्य उस परम् तत्व का अनुभव करता है या परमानंद को प्राप्त करता है परंतु इस सत्य या आनंद का अनुभव संत-महात्मा,परम् योगी और सच्चे भक्त ही कर सकते हैं, जिन्होंने इसे जाना है।
मनुष्य शक्ति का पुंज है। वह, उसी परम् शक्ति का अंश है परंतु वह अपनी वास्तविक शक्ति से अनभिज्ञ, शोक, चिंता, मोह आदि में अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत कर देता है । वह अपनी उस परम् दिव्य शक्ति को न जान पाता है, न अनुभव कर पाता है। यह शक्ति प्रत्येक व्यक्ति के मूलाधार में कुंडली रूप में सुप्त अवस्था में रहती है । सच्चे गुरु द्वारा दीक्षा देने या सिद्ध मंत्रों का करोड़ों बार जाप करने से यह शक्ति जागृत होती है।
सामान्य व्यक्ति की प्राण वायु दो नाड़ियों, ईड़ा और पिंगला में ही प्रवाहित होती है परंतु जब शक्ति की नाड़ी ‘सुषुम्ना’ जागृत हो जाती है तब यह प्राण वायु ईड़ा-पिंगला में न बहकर सुषुम्ना से बहती है । मानव शरीर में व्याप्त 72000 नाड़ियों में ‘सुषुम्ना’ एकमात्र शक्ति की नाड़ी है। यह शक्ति 8 चक्रों से उठती हुई अंतिम 9 वे चक्र सहस्रार अर्थात् गगन मंडल में पहुँचती है जहाँ उसे ‘परम् सत्य’ का अनुभव प्राप्त होता है।
संत, गुरु या गुरु आदेश से एक साधक द्वारा प्राप्त दीक्षा के पश्चात् ही व्यक्ति को उस शक्ति का अनुभव होता है। एक भक्त भी जब भक्ति की चरम् सीमा पर पहुँचता है तब उसे आशीर्वाद रूप में दीक्षा प्राप्त होती और वह इस शक्ति का अनुभव कर पाता है । इसके पश्चात् ही वास्तविक ध्यान-पूजा और प्रार्थना प्रारंभ होती है क्योंकि इसके बाद साधक या भक्त, इस सांसारिक माया और ईश्वर तत्व (सत्य-असत्य) के भेद को अनुभव कर, ‘जागरण’ अवस्था को प्राप्त होता है।
