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बनाया है मैंने ये घर – रामदरश मिश्र
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरेखुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरेकिसी को गिराया न ख़ुद को उछालाकटा ज़िन्दगी का सफर धीरे-धीरेजहाँ आप पहुँचे छलॉंगें लगा करवहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरेपहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थीउठाता गया यों ही सर धीरे-धीरेगिरा मैं कहीं तो अकेले में रोयागया दर्द से घाव भर धीरे-धीरेन हँस कर, न रोकर किसी में उड़ेलापिया ख़ुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरेज़मीं खेत की साथ लेकर चला थाउगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरेमिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारीमुहब्बत मिली है अगर धीरे-धीरे
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गगन मंडल
“गगन मंडल में ऊंधा कूबा, तहां अमृत का बासा। सगुरा होई सु भरि भरि पीवै, निगुरा जाइ पियासा॥” गुरु गोरखनाथ कहते हैं कि जिसके पास गुरु है, वह गगन मंडल में औंधे मुँह कुएँ में भरे ज्ञान रूपी अमृत को भर-भर कर पीता है और जिसके पास गुरु नहीं है, वह उस अमृत को चखे बिना ही मर जाता है।गगन मंडल है क्या! इसका वास्तविक अर्थ क्या है! संत-महात्माओं की वाणी में सदैव इसे पाया गया है। भक्ति काल की रचनाओं में भी गगन मंडल का उल्लेख है –“अवधूत गगन मंडल घर कीजै”(कबीर), “गगन मंडल पर सेज पिया की, किस बिध मिलना होय”, “गगन मंडल म्हारो सासरो…”(मीराबाई), “गगन मण्डल में…
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तुम शिव की शक्ति
हे नारी! तुम शिव की शक्ति इस धरा पर भक्ति ममता की मूरत प्रेम की सूरत जीवन दायिनी हो तुम ! हे नारी! भावों को समेटे धैर्य को लपेटे अँधेरे को गहराई में उतारे चेहरे पर लालिमा बिखरे चहूँ-ओर आलोक फैलाती हो तुम !! हे नारी!तुम्हें समझने वाली मात्र तुम तेरी अद्भुत सृष्टि में सब कुछ अनोखा हो जाता कुरूप को सुंदर मृत को भी प्राणमय बनाती हो तुम!!! हे नारी! तुम शिव की शक्ति!!!!
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*’स्कंद कवच’*
भगवान कार्तिकेय की परम् इच्छानुसार संत सुंदर जी द्वारा रचित कल्याणकारी ‘स्कंद कवच’ ‘स्कंद’ ही कवच है ‘स्कंद’ ही रक्षा है ‘स्कंद’ परमेश्वरा ‘स्कंद’ ही कैलाश है ‘स्कंद’ नेत्रों की मणि ‘स्कंद’ नासिका प्राण है ‘स्कंद’ जिह्वा अमृतपान ‘स्कंद’ ही श्रोत्र देवगान है ‘स्कंद’ देही परमतत्व ‘स्कंद’ ही मन आरंभ है ‘स्कंद’ विचार जन्म स्त्रोत ‘स्कंद’ ही भक्तों का दुर्ग स्थान है ‘स्कंद’ मोक्ष है सदा ‘स्कंद’ ही परमानंद है ‘स्कंद’ ज्ञान का सृष्टिकर्ता ‘स्कंद’ ही रम्य में अति रमणीय है ‘स्कंद’ करुणा की जननी ‘स्कंद’ ही जन्मरोग विनाशक है ‘स्कंद’ हर रोग की औषधि ‘स्कंद’ ही रक्षक कृष्णा है ‘स्कंद’ काया का संरक्षक ‘स्कंद’ ही सर्वोच्च है हे ‘स्कंद’!…
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‘गणपति कवच’
श्री गणेशाय नमःश्रीगणेश जी की परम इच्छानुसार संत सुंदर जी द्वारा रचित कल्याणकारी ‘गणपति कवच’ ‘गणपति कवच’ हे गजानन! आपका अभयहस्त, हमारी पूर्णतः रक्षा करे।हे गणपति! नागनासा, हमारे सभी भय, चिताओं का जड़ से नाश करे।हे लंबोदर! आपका विशाल उदर, हमारे सभी विघ्नों का क्षय करे।हे गणनाथ! आपके हस्त, सदैव हमें आपके प्रेमपूर्ण आलिंगन में रखें।हे विघ्नेश्वर! गजमुखा की अनंत शक्ति, सभी शत्रुओं का विनाश करे।हे गुणालय वेरंबन! हमारे बुरे विचारों को निरा निष्कासित करें।हे कर्मानायक! सभी बुरे कर्मों के प्रभाव से रक्षा करें।हे गणनादर के भूतगणों! सभी दुर शक्तियों से हमारी रक्षा करें।हे रिद्धि-सिद्धि नायक! श्रेष्ठ ज्ञान व उच्च गुणों को हमें प्रदान करें।हे नवग्रह नायक! सर्वजन्मकर्मों से हमारी…
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सब कुछ छूट जाएगा
जब सोचोगे यह मेरा हैयह भ्रम तेरा टूट जाएगा,जो कुछ अपना माना थावह सब कुछ छूट जाएगा।तन्हा खुद को पाओगेजब जरूरत सबसे अधिक होगी,हर बनने वाला खास तेरादूर-दूर नज़र न आएगा।जब सोचोगे यह मेरा हैयह भ्रम तेरा टूट जाएगा…। दुनिया का दस्तूर है यहउगते सूरज को प्रणाम हैढलते की परवाह है किसेअब चैन से सोने की तलाश हैहर कोई अब तेरा अपनाकहीं और सपने सजाएगाजब सोचोगे यह मेरा हैयह भ्रम तेरा टूट जाएगा…। कृपा प्रभु की ऐसी बरसीमायाजाल अब कट जाएगायह अंधकार जीवन में तेरेनवचेतन को जगाएगाऐसा होगा सूर्योदय फिरजीवन, चिर प्रकाश बन जाएगा।जब सोचोगे यह मेरा हैयह भ्रम तेरा टूट जाएगा,जो कुछ अपना माना थावह सब कुछ छूट जाएगा।
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ज़रूरी था ठहरना
क्या ज़रूरी था ठहरना?वहाँ, जहाँ कोई नहीं थाअकेले रास्ते पर नज़रें गढ़ाएजहाँ से किसी के आने कीउम्मीद लगाएकभी पलट कर, कभी दाएँ-बाएँपर कुछ नज़र न आएक्या ज़रूरी था ठहरना? एकाएक साँय-साँय की आवाज़जैसे कोई तूफ़ान का आगाज़अगले क्षण क्या होगापता नहींजो बीत गयावह साथ नहींबस खड़ीन किसी उम्मीद मेंन किसी भय मेंसिर्फ मैं और वह सन्नाटाऔर मैं भी कहाँउस सन्नाटे मेंखो जो चुकी थीथा तो बस वह ‘एक’जो ‘परम्’ हैउसकी आवाज़, उसका एहसासऔर उसका साथइसी सन्नाटे में हैहाँ ज़रूरी था ठहरना!बहुत ज़रूरी था ठहरना!!
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अंतिम साँस
अंतिम साँस तक लड़ी हिम्मत न हारी इस आस में कि कोई न कोई किनारा मिल ही जाएगा घोर घटाओं ने घेरा आँधी तूफानों को झेला किस्मत ने साथ छोड़ा हर उसने साथ छोड़ा जो कभी मेरा अपना था उसने भी मुँह मोड़ा जिससे मेरे जीवन में हर क्षण सवेरा था टूट गई मैं हर आस से छूट गई मैं डूब रही हूँ इस समुद्र की गहराई में जो उबार लेगी मुझे सदा के लिए इस संसार की परछाई से…
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ओ राधारानी! तुम हो कौन?
ओ राधारानी! तुम हो कौन? बृषभान दुलारी या नंदलाल की प्यारी होगोपियों की सखी या बरसाने की रानी हो ओ राधारानी! तुम हो कौन? तुम्हारा नाम, यमुना के कल-कल में तुम्हारा नाम, वृंदावन की कुंजगली में तुम्हारा नाम, हर प्राणी के अंतसमन में तुम्हारा नाम, गिरधर की मुरली में ओ राधारानी! तुम हो कौन? अरे राधा! तुम्हारी सुंदरता पर, चाँद-सूरज भी लजाएँ तुम्हारी मुस्कान पर, फूल भी लहराएँ तुम्हारी एक दृष्टि को, प्रकृति भी ललचाए तुम्हारे प्यार पर, स्वयं प्रभु भी झुक जाएँ ओ राधारानी! तुम हो कौन? अरे राधा! संज्ञान में आया, तुम कृष्ण का प्रेम हो तुम कृष्ण का भेद हो तुम ही कृष्ण की…
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कहाँ था तुम्हारा यह प्रेम?
हे कृष्णा! कैसे तुम चुप रह सकते हो? क्या इन आँसुओं से तुम्हारा हृदय नहीं पिघलता? कैसे देखकर भी, अनदेखा करते हो? तड़पता छोड़कर अचानक चले जाते हो, कभी हाल-चाल पूछने भी नहीं आते! हाँ, तुम तो त्रिकालदर्शी हो!! सब कुछ तमाशे की तरह देखते रहते हो!!! एक बात बताओ, उद्धव को उसके अहंकार को तोड़ने के लिए यहाँ भेजा या हमारा मन बदलने के लिए! कहीं ऐसा तो नहीं, हमारा प्रेम जाँचने के लिए!! हमारा तो एक ही हृदय है जिसमें सदा तुम ही बसते हो तो बदलता कैसे!!! परंतु, लगता है तुम्हारा ह्रदय अवश्य पत्थर का हो गया है! क्या होता, अंत में अपनी बाँसुरी फेंक दिखाते हो…