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एक वृक्ष की हत्या – कुँवर नारायण
अबकी घर लौटा तो देखा वह नहीं था—वही बूढ़ा चौकीदार वृक्षजो हमेशा मिलता था घर के दरवाज़े पर तैनात। पुराने चमड़े का बना उसका शरीरवही सख़्त जानझुर्रियोंदार खुरदुरा तना मैला-कुचैला,राइफ़िल-सी एक सूखी डाल,एक पगड़ी फूल पत्तीदार,पाँवों में फटा-पुराना जूताचरमराता लेकिन अक्खड़ बल-बूता धूप में बारिश मेंगर्मी में सर्दी मेंहमेशा चौकन्नाअपनी ख़ाकी वर्दी में दूर से ही ललकारता, “कौन?”मैं जवाब देता, “दोस्त!”और पल भर को बैठ जाताउसकी ठंडी छाँव में दरअसल, शुरू से ही था हमारे अंदेशों मेंकहीं एक जानी दुश्मनकि घर को बचाना है लुटेरों सेशहर को बचाना है नादिरों सेदेश को बचाना है देश के दुश्मनों सेबचाना है—नदियों को नाला हो जाने सेहवा को धुआँ हो जाने सेखाने को…
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धीरे-धीरे
– सर्वेश्वरदयाल सक्सेनाभरी हुई बोतलों के पासख़ाली गिलास-सामैं रख दिया गया हूँ। धीरे-धीरे अँधेरा आएगाऔर लड़खड़ाता हुआमेरे पास बैठ जाएगा।वह कुछ कहेगा नहींमुझे बार-बार भरेगाख़ाली करेगा,भरेगा—ख़ाली करेगा,और अंत मेंख़ाली बोतलों के पासख़ाली गिलास-साछोड़ जाएगा। मेरे दोस्तो!तुम मौत को नहीं पहचानतेचाहे वह आदमी की होया किसी देश कीचाहे वह समय की होया किसी वेश की।सब-कुछ धीरे-धीरे ही होता हैधीरे-धीरे ही बोतलें ख़ाली होती हैंगिलास भरता है,हाँ, धीरे-धीरे हीआत्मा ख़ाली होती हैआदमी मरता है। उस देश का मैं क्या करूँजो धीरे-धीरे लड़खड़ाता हुआमेरे पास बैठ गया है। मेरे दोस्तो!तुम मौत को नहीं पहचानतेधीरे-धीरे अँधेरे के पेट मेंसब समा जाता है,फिर कुछ बीतता नहींबीतने को कुछ रह भी नहीं जाताख़ाली बोतलों के पासख़ाली गिलास-सा सब…
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देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता
– सर्वेश्वरदयाल सक्सेनायदि तुम्हारे घर केएक कमरे में आग लगी होतो क्या तुमदूसरे कमरे में सो सकते हो?यदि तुम्हारे घर के एक कमरे मेंलाशें सड़ रहीं होंतो क्या तुमदूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?यदि हाँतो मुझे तुम सेकुछ नहीं कहना है। देश कागज पर बनानक्शा नहीं होताकि एक हिस्से के फट जाने परबाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहेंऔर नदियां, पर्वत, शहर, गांववैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखेंअनमने रहें।यदि तुम यह नहीं मानतेतो मुझे तुम्हारे साथनहीं रहना है। इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ाकुछ भी नहीं हैन ईश्वरन ज्ञानन चुनावकागज पर लिखी कोई भी इबारतफाड़ी जा सकती हैऔर जमीन की सात परतों के भीतरगाड़ी जा सकती है। जो विवेकखड़ा हो…
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अनुस्वार (ं) और चंद्र बिंदु (ँ) संबंधी अशुद्धियाँ
अनुस्वार के स्थान पर चंद्रबिंदु लगाइए* अशुद्ध रूपअंगीठीअंगूठाअंग्रेजीआंसूकंटीलाकांटागांधीजाऊंगाजूंडांटढंगतांगातांबादांवपांचफांसीबांदामांरोटियांसांपहंसीहां-हूंहोउंगी शुद्ध रूप*अँगीठीअँगूठाअँग्रेजीआँसूकँटीलाकाँटा (कंटक सही है)गाँधी (गंदी सही है)जाऊँगाजूँडाँटढँगताँगाताँबादाँवपाँचफाँसीबाँदामाँरोटियाँसाँपहँसीहाँ-हूँहोउँगी * अनुस्वार के स्थान पर चंद्रबिंदु का प्रयोग करना पूर्णत: अशुद्ध है। चंद्रबिंदु (ँ) के स्थान पर अनुस्वार (ं) लगाइए अशुद्ध रूपअँकअँकुशअँजनएवँक्रमाँकदिनाँकपँचबाराबँकीरँगविशेषाँकसँस्कृतसँयोगस्वयँ शुद्ध रूपअंकअंकुशअंजनएवंक्रमांकदिनांकपंच ( पाँच सही है)बाराबंकीरंगविशेषांकसंस्कृतसंयोगस्वयं अनुस्वार न लगाइए अशुद्ध रूपजाएंगींओंठगेंहूँचाहिएंदोस्तों शुद्ध रूपजाएंगी*ओठगेहूँ चाहिए**दोस्तो*** (संबोधन में, जैसे-प्रिय दोस्तो!) अशुद्ध रूपनींबूनोंकपूछतांछबीचोंबीचभींगनामहीनेंमानोंहोंठो शुद्ध रूपनीबूनोकपूछताछबीचोबीचभीगनामहीनेमानोहोठों * भविष्यत् काल में बहुवचन में- गें, गीं नहीं होता। इनसे पूर्व का स्वर प्रभावित होता है, जैसे- जाएगी > जाएंगी > जाएंगे आदि।भूतकाल में स्त्रीलिंग में अनुस्वार लगता है, जैसे-आई > आईं ; लेकिन पुल्लिंग > बहुवचन में अनुस्वार नहीं लगता, जैसे आया > आए आदि । ** ‘मुझे…
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‘गोशाला’ से पवित्र स्थल, दुनिया में कहीं भी नहीं…
महर्षि वशिष्ठ जी ने कहा है – “गाव: स्वस्त्ययनं महत्” अर्थात् ‘गो मंगल का परम् निधान है।’ जहाँ गोमाता का पालन-पोषण भली-भाँति नहीं होता, वहाँ अमंगल दशा देखने को मिलती है और जहाँ गोमाता की पूजा होती है, वहाँ संपन्नता व आनंद की वर्षा होती है। यही कारण था कि पूर्वकाल में राजा गोधन को ही सर्वश्रेष्ठ मानते थे; गोपूजा, गोदान की प्रथा प्रचलित थी। समय के साथ भारतीय संस्कृति का सर्वश्रेष्ठ आचरण ‘गोसेवा’ लुप्त होती गई और जिस देश में दूध की नदियाँ बहती थीं, वहाँ गरीबी बढ़ती गई। भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आचार्य विनोबा भावे जी ने कहा है – “हिंदुस्तानी सभ्यता का नाम ही ‘गोसेवा’ है।”महानगर…
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पड़ाव
एक बार कहा था मैंनेउस सितारे से एक दिन चमकूंगी तेरी तरहपर इतनी दूर नहीं जहाँतेरे टूटने की प्रतीक्षा मेंनज़रें गड़ाए ज़िंदगी बिता देते हैंतुझसे उम्मीद रखने वाले। ठहर जाऊँगी मैं उस पड़ाव पर हीजहाँ से देख सकूंगी उन चेहरों कोजो आस लगाए बैठे हैं औरटूट जाया करूँगी बार-बारउनके चेहरे पर मुस्कराहट लाने के लिए।
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सब कुछ मिल गया
शाम को जॉब से लौटते समय भाई ने फोन किया और कहा कि दीदी थोड़ा तैयार रहना, मेहमान आ रहे हैं। मैंने कई बार पूछा कि कौन आ रहे हैं? भाई बोला कि बहुत स्पेशल हैं। मैं बहुत उत्सुक थी कि कौन मेहमान आ रहे हैं, कोई उसके सीनियर ऑफिसर आ रहे हैं या कोई और….? इंतजार करते-करते काफी समय बीत गया। फिर फोन आया…. भाई – दीदी आप फर्स्ट फ्लोर से नीचे सड़क पर आ जाइए। मैंने कहा – इतने बड़े मेहमान हैं कि उनका स्वागत सड़क पर जाकर ही करना पड़ेगा।मैं और मेरे पति दोनों ही नीचे पहुँचे तो देखा कि वह बाइक पर अपने दोस्त के साथ…
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शुद्ध हिंदी लेखन
हिंदी का प्रयोग-क्षेत्र विस्तृत है। हिंदी की 18 बोलियाँ व उनकी उपबोलियाँ और उनके भी स्थानीय रूप होने के कारण, भाषा में अनेक भिन्नताएँ दिखाई देती हैं, जिससे उसके लेखन-शैली में विविधता आ जाती है। इस प्रकार, किसी वाक्य रचना या शब्दों का शुद्ध-अशुद्ध कहना कठिन हो जाता है, शब्दों के उच्चारण एवं लेखन में प्राय: एकरूपता का अभाव भी दिखाई देता है। अतः भाषा का मानक रूप, उसे पढ़ने, लिखने व समझने में एकरूपता के साथ सहजता प्रदान करता है एवं संप्रेषण को प्रभावी बनाता है। यहाँ, भाषा के शुद्ध व मानक रूप द्वारा हिंदी-लेखन में विभिन्न प्रकार की अशुद्धियों से परिचित कराया गया है। वर्तनी-संबंधी अशुद्धियाँ ‘अ’ के…
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युगदृष्टा स्वामी विवेकानंद
“जिस चरित्र में ज्ञान, भक्ति और योग – इन तीनों का सुंदर सम्मिश्रण है, वही सर्वोत्तम कोटि का है। एक पक्षी के उड़ने के लिए तीन अंगों की आवश्यकता होती है – दो पंख और पतवारस्वरूप एक पूँछ। ज्ञान एवं भक्ति मानो तो पंख है और योग पूँछ, जो सामंजस्य बनाए रखता है।” ऐसे दार्शनिक, विचारक, लेखक, वक्ता, देशभक्त, भक्त, मानव व प्रकृति प्रेमी युगदृष्टा स्वामी विवेकानंद, जिन्होंने मात्र 25 वर्ष की आयु में गृह त्याग दिया। वे सत्य की खोज में तब तक प्रयासरत रहे, जब तक उसे पा नहीं लिया।मात्र 30 वर्ष की आयु में शिकागो सम्मेलन में भारत देश की संस्कृति, सभ्यता अध्यात्म, धर्म को सम्मान दिलाया,…
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संत कवयित्री सहजोबाई
हिंदी साहित्य के भक्ति काल में यदि किसी संत कवयित्री की बात की जाए तो तुरंत ही मीराबाई का नाम जिह्वा पर होता है, परंतु यह भी विचारणीय है कि उनके अलावा किसी अन्य महिला संत का आविर्भाव नहीं हुआ। भक्त मीराबाई के समान चारों और भक्ति की सुगंध फैलाने वाली 18वीं सदी की सहजोबाई भी अविस्मरणीय स्थान रखती हैं।सहजोबाई का जन्म 25 जुलाई, सन् 1725 दिल्ली माना जाता है, वहीं, कहीं-कहीं 15 जुलाई, सन् 1724 का भी उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि राजस्थान में उनका जन्म हुआ और बाद में, वे सपरिवार दिल्ली आ गईं। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। शादी के समय एक ऐसी घटना…