कविता

दीप जला

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कहाँ जलाऊं दीप,
हर और उदासी छाई है।
कहीं भ्रष्टाचार तो,
कहीं गरीबी खाई है।।
नफरत के अंगारों पर,
कोई ना कोई जलता है।
शोषण की इस अग्नि में,
हर रोज कोई मरता है।।
दीपक की ज्वाला भी,
अब यह कहकर
दहकती है-
रख हौसला अपने दम पर,
तूफानों से लड़ती हूं।
सबको रोशन करती मैं,
घनघोर अंधेरा हरती हूं।।
स्वार्थ के बस में होकर तू,
अपना अस्तित्व मिटाता है।
भरा अंधेरा अंतर्मन में,
किस भाव का दीप जलाता है?
प्रेम हृदय में रख पहले,
स्नेह भरा अब पर्व मना।
सबकी रक्षा के प्रण हेतु,
इस दीवाली दीप जला।।
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