• कविता

    दीप जला

    ******************** कहाँ जलाऊं दीप, हर और उदासी छाई है। कहीं भ्रष्टाचार तो, कहीं गरीबी खाई है।। नफरत के अंगारों पर, कोई ना कोई जलता है। शोषण की इस अग्नि में, हर रोज कोई मरता है।। दीपक की ज्वाला भी, अब यह कहकर दहकती है- रख हौसला अपने दम पर, तूफानों से लड़ती हूं। सबको रोशन करती मैं, घनघोर अंधेरा हरती हूं।। स्वार्थ के बस में होकर तू, अपना अस्तित्व मिटाता है। भरा अंधेरा अंतर्मन में, किस भाव का दीप जलाता है? प्रेम हृदय में रख पहले, स्नेह भरा अब पर्व मना। सबकी रक्षा के प्रण हेतु, इस दीवाली दीप जला।। ********************

  • कविता

    ठहराव

    कभी विचलन, कभी उथलापन, तलाश, एक ठहराव, शांत भांव …………….. । आंसमा की ओर झांकता, दूर वसुन्धरा को तांकता । भॅवर से उबरने की आस, न डूबने का आत्मविश्वास । वेग से आती वयार, ले जाती साथ, लौटाती खाली हाथ । गिरते – उठते तरंगों के पार, मानी अपनी हार । डूबी गहराई के जहन में, मुस्कुराई अब मन में, बाह्यी खोज भटकाव ! डूब स्वयं में, गहराई में ही ठहराव शांत सार ………………….. ।।

  • कविता

    बदल जाने दो सब

    अपनी वाही-वाही के लिए लड़ते हो, कभी झूठ, कभी दिखावा का चोला पहनते हो, तुम्हारा साक्षी तुम्हें कैसे माफ करता है, सत्य जानकर भी असत्य स्वीकार करते हो। थोड़ा इतिहास के पन्ने पलट लो, ऑखें खोलो स्मरण कुछ कर लों भूखे लड़े, प्यासे मरे, इस देश के लिए हॅसकर फॉसी चढ़े, क्या रिश्ता था हमसे वाह ! क्या रिश्ता था वतन से । दूसरों के लिए जिए, जीवन हमें बता अमर हुए। और हम जीकर भी रोज मरते हैं, स्वार्थ के कीचड़ से, स्वयं को बदरूप, बदरंग और दुर्गंध भरते है । मानवता अब तो जगाओ । कब तक मुखौटा पहनोगे अब तो उतारो, अपने सत् रूप को जानो, पहचानो…

  • कविता

    मैं चलती हूं….

    मुस्कुराता चेहरा बहते अश्रु, कपोलों से पौंछती उंगलियों से उठती कलम, प्रश्न करती स्वयं से चलूं या नहीं? कितना लिखा? क्या – क्या लिखा? सब कुछ लिखा…! किसने समझा? कितना बदला? आज भी सब वही है, वहीं हैं। मुखौटा पहने ये पुतला खुश करने का प्रयास, बेजान होकर भी दिखावे का ढंग जो भ्रमित कर खींचता अपनी ओर, वक्त की ढलती शाम में बदलता मुखोटे का रंग और पुनः उदास, थकी, ठहरती सी बस एक उम्मीद में, ‘सब बदलेगा‘ मैं चलती हूँ……..

  • लघु कथा

    “अच्छा ही होगा” 

    राधा और शिवा दोनों भाई बहन रेलवे स्टेशन जाने के लिए बस में चढ़े l वे दोनों ही बहुत घबराए हुए थे क्योंकि रेल छुटने का समय और बस स्टॉप से स्टेशन पहुंचने का समय लगभग समान ही था l वे सोच में थे की रेल पकड़ भी पाएंगे या नहीं l बस से उतरते समय एक दिव्यांग ने शिवा से मदद मांगी कि वह स्टेशन तक पहुंचा दे l शिवा ने कुछ सामान अपने कंधे पर लादा और कुछ राधा को देकर, आगे बढ़े l राधा ने एक बार शिवा से कहा भी कि हम लोगों को रेल मिलना बहुत मुश्किल है और इतनी भीड़ में कैसे इस दिव्यांग…

  • कविता

    प्रेम

    प्रेम फूलों से हर किसी को एक बार कांटे से भी कर लो चुभन तुम्हारी दूर न कर दूं तो कहना…. प्रेम बरसात से हर किसी को एक बार सूखे से भी कर लो न चाहत का एहसास दिला दूं तो कहना…. प्रेम हवाओं से हर किसी को एक बार निर्वात से भी कर लो न शांत स्वरुप दिखा दूं तो कहना…. प्रेम नदियों से हर किसी को एक बार नाले से भी कर लो न दुख का एहसास दिला दूं तो कहना…. प्रेम नरम दिल से हर किसी को एक बार पत्थर दिल से भी कर लो ताकत से तुझे न भर दूं तो कहना…. प्रेम परमात्मा से सबको…

  • कविता

    शारदे वंदना

    शुभ वाणी शुद्ध विद्या, शुद्ध चित्त प्रदायिनी ! सदा धरूँ तेरा ही ध्यान, है सर्वबाधा विनाशिनी !! जय जय शारदे माता जय जय शारदे माता । जय जय शारदे माता जय जय शारदे माता ।। वीणावादिनी तू ही, पुस्तक धारिणी तू । कमलासनी तू ही, हंस विराजिनी तू ।। जय जय शारदे… ।। मैं मूरख अज्ञानी, मन में तमस भरा । बिनती सुन ले माता, ज्ञान का दीप जला ।। जय जय शारदे..।। मूढ़ता हरके मेरी, बुद्धि प्रदान करो । जिह्वा कवित्व हो माता, विद्या तर्क भरो ।। जय जय शारदे… ।। तू कल्याणी शक्ति, जीवन दायनी तू । दया दृष्टि कर माता, क्षमा दायनी तू ।। जय जय शारदे……

  • कविता

    *अंधेरा*

    उजाले की चाहत तारों सी चमचमाहट सूरज का तेज हर किसी को पाने की तमन्ना, परंतु मुझे अंधेरों से प्यार l उसका आत्मविश्वास कि सूरज का तेज उसके अस्तित्व को बनाए रखेगा, अंधेरा विस्मय हो या सूरज अस्तमय उसे गर्व है कि रोशन उसका ही जहां होगा जब प्रभात की सुनहरी लालिमा में तिल – तिल घुलेगा, लौटेगा फिर अपने जहां में कुछ खोने का भय ना होगा l इस रोशन जहां में जागने की बात सब करते हैं जहां प्रकाश वाह्य आवरण छूती है, मैं तो वह अंधेरा हूं जो अंधेरे में ही सबको रोशन करती हूं l मेरे बिना उसका वजूद ना होगा, नकारते हो मुझे, दुत्कारते हो…

  • लघु कथा

    “सब अपने हैं” 

    राहुल हमेशा चीनू के यहां जाने की जिद करता था परंतु राहुल की मां हमेशा उसे जाने के लिए डांट कर मना कर देती थी l चीनू के बार – बार आग्रह करने पर इस बार राहुल से रहा नहीं गया और मां को बिना बताए चला गया l देर होने के कारण मां बहुत चिंता में सोच रही थी कि आखिर आज इतनी देर कैसे हो गई? कुछ देर बाद राहुल हंसते – खेलते घर की ओर आ ही रहा था कि मां दूर से ही देख राहुल पर बरस पड़ी l राहुल ने अपनी मां से कहा; आप मुझे हमेशा गलत बताती आईं हैं…. कि वह स्लम एरिया…

  • कविता

    *आखिर कब आओगे*

    त्रेता बीता, द्वापर बीता, कलयुग ने पांव पसारा है, आखिर कब आओगे सतयुग मेरे? चहुंओर विकृत नजारा है l अत्याचार, व्यभिचार, वासनाओं… का अब यहां रेला है, पग-पग छलता मुखड़ा जो पहने सज्जनता का चोला है l कलयुग ने पांव पसारा है, आखिर कब आओगे सतयुग मेरे? चहुंओर विकृत नजारा हैl ईर्ष्या -द्वेष, घृणा… वश मन ने मानव हृदयाघात खेला है, प्रेम स्वार्थ पर टिका हुआ ‘मैं’, ‘मेरा सब’ का मेला है l कलयुग ने पांव पसारा है, आखिर कब आओगे सतयुग मेरे? चहुंओर विकृत नजारा है l